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उनसे जुड़ जाते हो, उतनी ही वे महत्वपूर्ण हो जाती हैं। जितनी ज्यादा वे महत्वपूर्ण हो जाती हैं, उतने ज्यादा तुम उनसे जुड़ जाते हो। अब तुम एक दुध्वक्र निर्मित कर लेते हो। इस दुक्कक्र के बाहर आओ।
सातवां प्रश्न:
क्या मल्यांकन करने और विवेक करने के बीच कोई अंतर है?
हां, बहुत अंतर है। मूल्यांकन आता है तुम्हारे विश्वासों से, सिद्धांतो से, धारणाओं से, मूल्यांकन आता है तुम्हारे अतीत से, तुम्हारे ज्ञान से। विवेक आता है तुम्हारे वर्तमान से, तुम्हारे बोधपूर्ण प्रतिसंवेदन
से।
उदाहरण के लिए. तुम किसी शराबी को देखते हो। तुरंत एक मूल्यांकन आ जाता है. यह आदमी अच्छा काम नहीं कर रहा है-'शराबी' है। तुरंत एक निंदा-यह है मूल्यांकन! यदि तुम्हारे पास कोई निश्चित धारणाएं नहीं हैं कि क्या ठीक है और क्या गलत है, तो कैसे तुम इतनी जल्दी निर्णय कर सकते हो! तुम उस आदमी को बिलकुल नहीं जानते, उसकी परिस्थिति को नहीं जानते। उसकी समस्याओं का तुम्हें कछ पता नहीं, उसकी पीड़ाओं का तुम्हें कछ पता नहीं। उस आदमी की पूरी जिंदगी जाने बिना तुम कोई निर्णय कैसे दे सकते हो? एक हिस्से से ही कैसे निर्णय कर सकते हो तुम? कैसे कह सकते हो तुम कि यह आदमी बुरा है? अगर वह शराबी न होता तो क्या तम सोचते हो कि वह कुछ बेहतर आदमी होता? संभव है कि वह और भी बुरा होता।
ऐसा मेरा बहुत से शराबियों के साथ अनुभव रहा है कि वे अच्छे आदमी होते हैं-बहुत कोमल, बहुत भरोसे के, चालाक नहीं होते, सीधे-साफ होते हैं-बच्चों जैसा निर्दोष भाव होता है। तो क्यों वे शराब पीते हैं फिर? संसार ज्यादा भारी हो जाता है उनके लिए; वे उसका सामना नहीं कर पाते। वे इस संसार के लिए नहीं बने होते; यह संसार बहुत धूर्त है। वे भुला देना चाहते हैं इसे, और वे नहीं जानते कि क्या करें और शराब आसानी से मिल जाती है; ध्यान को तो खोजना पड़ता है व्यक्ति को। मेरे देखे. वे सब लोग जो शराबी हैं उन्हें ध्यान की जरूरत होती है। वे ध्यान की खोज में होते हैं-आनंद की गहरी खोज में होते हैं, लेकिन उन्हें कोई द्वार, कोई रास्ता नहीं मिलता। अंधेरे में टटोलते हुए शराब उनके हाथ लग जाती है। बाजार में शराब आसानी से मिल जाती है; ध्यान इतनी आसानी से नहीं मिलता। लेकिन गहरे में उनकी तलाश ध्यान के लिए ही होती है।