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सारे प्रेमी, जब साथ होते हैं, तो सोचते हैं, 'कैसा सुंदर होगा अकेले रहना!' और जब वे अलग होते हैं, अकेले होते हैं, तो देर-अबेर वे दूसरे की जरूरत अनुभव करने लगते हैं और कल्पना करने लगते हैं और सपने देखने लगते हैं, 'कैसा सुंदर होगा साथ रहना!'
शरीर को चाहिए साथ, और तुम्हारी अंतरतम आत्मा को चाहिए स्वात। यह है समस्या। तुम्हारी आत्मा अकेली हो सकती है-हिमालय के उत्तुंग शिखर की भांति। तुम्हारी आत्मा एकांत में विकसित होती है। लेकिन तुम्हारे शरीर को जरूरत होती है संग-साथ की। शरीर को चाहिए भीड़, ऊष्मा, क्लब, सभाएं, संस्थाएं; जहां भी तुम बहुत से लोगों के साथ होते हो, शरीर को अच्छा लगता है। भीड़ में तुम्हारी आत्मा दीन-हीन अनुभव करती है, क्योंकि वह स्वात में विकसित होती है, लेकिन तुम्हारा शरीर अच्छा अनुभव करता है भीड़ में। स्वात में तुम्हारी आत्मा अच्छा अनुभव करती है, लेकिन शरीर भूख अनुभव करने लगता है संबंध के लिए।
और जीवन में अगर तुम इसे ठीक से नहीं समझ लेते, तो तुम व्यर्थ ख पाते हो। अगर तुम इसे समझ लेते हो, तो तुम एक लय बना लेते हो : तुम शरीर की आवश्यकता पूरी करते हो और तुम आत्मा की आवश्यकता भी पूरी करते हो। कभी तुम संबंधों में जीते हो, कभी तुम संबंधों से हट जाते हो। कभी तुम संग-साथ में जीते हो और कभी तुम अकेले जीते हो। कभी तुम उड़ा शिखर हो जाते हों-इतने अकेले कि दूसरे का विचार भी मौजूद नहीं होता। एक लय होती है।
लेकिन जब कोई स्वात को उपलब्ध हो जाता है और चेतना का फोकस बदल चुका होता है वही तो सारा प्रयास है योग का : कैसे फोकस बदले शरीर से आत्मा पर, पदार्थ से अपदार्थ पर. दृश्य से अदृश्य पर, शात से अज्ञात पर-संसार से परमात्मा पर। कुछ भी कह लो इसे तुम, उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह है फोकस का बदलना। जब फोकस पूरी तरह बदल जाता है, तो योगी इतना सुखी होता है अपने स्वात में, इतना आनंदित होता है, कि शरीर की जो सामान्य चाह होती है दूसरों के साथ होने की वह भी धीरे-धीरे तिरोहित होने लगती है।
जब शुद्धता उपलब्ध होती है, तब योगी में एक मोह- भंग उत्पन्न होता है अपने शरीर के प्रति अब वह जानता है कि जो स्वर्ग वह खोजता आया है, वह शरीर के दवारा नहीं पाया जा सकता है। जिस आनंद की वह कल्पना करता रहा है, वह शरीर के द्वारा नहीं संभव है। यह शरीर के लिए असंभव है सीमित के द्वारा तुम असीम तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हो। पदार्थ के द्वारा तुम शाश्वत को पाने की, अमृत को पाने की कोशिश कर रहे हो।
कुछ गलत नहीं है शरीर में, तुम्हारा प्रयास ही बेतुका है। शरीर के प्रति क्रोधित मत होओ; शरीर ने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा है। यह ऐसे ही है जैसे कोई आंखों से सुनने की कोशिश कर रहा हो। अब आंखों की तो कोई गलती नहीं है आंखें बनी हैं देखने के लिए, न कि सुनने के लिए। शरीर बना है