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कभी नहीं होने देते। वे सदा तुम्हारे पीछे पड़े रहते हैं-अपने निर्णय सहित। वे सदा तुम्हारी छाती पर बैठे रहते हैं-अपनी धारणाओं और तुलनाओं के साथ। वे सदा तैयार रहते हैं तुम्हें नरक में फेंकने को या तुम्हें स्वर्ग का पुरस्कार देने को।
मेरे पास कुछ नहीं है-न तो कोई नरक है जिसमें तुम्हें फेंकना है और न कोई स्वर्ग है जिसे तुम्हें देना है-सिर्फ होने का आनंद है। और यह संभव है, बिलकुल संभव है। अगर तुम उसे होने दो तो यह अभी संभव है।
__मेरे देखे, जीवन कोई गंभीर चीज नहीं है। असल में जीवन अस्तित्व की शाश्वतता में होने वाली एक कहानी, एक गुफ्तगू के सिवाय और कुछ नहीं है। मैं गुफ्तगू कर रहा हूं यहां; तुम सुन रहे हो, बस इतनी सी बात है। यदि तुम आनंदित हो तो तुम यहां हो। यदि मैं आनंदित हूं तो मैं यहां हूं। यदि परस्पर आनंदित होना कठिन हो जाए, तो हम अलग हो जाते हैं और कोई बंधन नहीं है।
और मैं किसी को इजाजत नहीं देता–चाहे वह पदयसंभव ही क्यों न हो-कि वह अपने जाल का लक्ष्य मुझे बनाए।
आज इतना ही।
प्रवचन 53 - शरीर और मन की शुद्धता
योग-सूत्र
(साधनपाद)
शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:।। 40।।
जब शुद्धता उपलब्ध होती है, तब योगी में स्वयं के शरीर के प्रति एक जुगुप्सा और दूसरों के साथ शारीरिक संपर्क में आने के प्रति एक अनिच्छा उत्पन्न होती है।