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सत्वशुद्धिसौमनस्यैकग्रयैन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च।। 41 ।।
मानसिक शुद्धता से उदित होती है-प्रफुल्लता, एकाग्रता की शक्ति, इंद्रियों पर नियंत्रण और आत्मदर्शन की योग्यता ।
संतोषादनुत्तमसुखलाभः।। 42।।
संतोष से उपलब्ध होता है परम सुख
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य और अंतस की प्रामाणिकता से शुद्धता आती है। ये बातें कोई नैतिक
धारणाएं नहीं हैं पतंजलि के लिए; इसे सदा स्मरण रखना। पश्चिम में ये बातें नैतिक धारणाओं की भांति सिखाई गई हैं, पूरब में आंतरिक स्वास्थ्य की भांति सिखाई गई हैं, नैतिक धारणाओं की भांति नहीं। पश्चिम में वे परोपकार की भांति सिखाई गई हैं, पूरब में उनमें परोपकार जैसी कोई बात नहीं है—यह बिलकुल स्वार्थ की बात है। यह तुम्हारा आंतरिक स्वास्थ्य है। ये बातें तुम्हें एक शुद्धि देती हैं, और उस शुद्धि से असंभव संभव हो जाता है, अनुपलब्ध उपलब्ध हो जाता है। शुद्धि द्वारा तुम्हारे भीतर की स्थूलता खो जाती है। तुम सुकोमल, सूक्ष्म और सौम्य हो जाते हो। शुद्धता अस्तित्व के लिए भेजा एक निमंत्रण है कि तुम उसके अवतरण के लिए तैयार हो ... और एक दिन सागर उमड़ आता है, और उतर जाता है बूंद में।
जब ये बातें नैतिक धारणाओं की भांति सिखाई जाती हैं, जैसा कि पश्चिम में- या भारत में भी जैसा कि महात्मा गांधी सिखाते आए हैं - तब उनकी पूरी गुणवत्ता बदल जाती है। जब तुम कहते हो,' 'तुम्हें अहिंसक होना चाहिए, क्योंकि हिंसा दूसरों को चोट पहुंचाती है। किसी को चोट मत पहुंचाओ। मानवता एक परिवार है, और दूसरों को चोट पहुंचाना पाप है।' तो तुमने सारी बात को एक बिलकुल ही अलग आयाम में मोड़ दिया।
पतंजलि कहते हैं, 'अहिंसक होओ : क्योंकि यह बात तुम्हें शुद्ध करती है। किसी को चोट मत पहुंचाओ-किसी को चोट पहुंचाने के बारे में सोचो भी मत - क्योंकि जैसे ही तुम उस ढंग से सोचते हो तुम भीतर शुद्ध में गिर जाते हो।' बात दूसरे की नहीं है, बात तुम्हारी है। निश्चित ही जब कोई अहिंसक होता है तो दूसरे लोगों को इससे लाभ मिलता है, लेकिन वह लक्ष्य नहीं है अहिंसक होने का वह तो केवल एक उप-उत्पत्ति है, एक छाया मात्र है।