________________ और फिर है-स्वाध्याय। वह व्यक्ति जो उपलब्ध हो चुका है शुद्धता को, संतोष को, तप-संयम को, केवल वही अध्ययन कर सकता है 'स्व' का, अंतस का; क्योंकि अब सारा कूड़ा-करकट फेंका जा चुका है, सारी गंदगी फेंकी जा चुकी है। अन्यथा स्वाध्याय संभव ही न होगा। तुम्हारे भीतर इतनी ज्यादा गंदगी है, यदि तुम अपना अध्ययन करोगे तो वह कोई स्वाध्याय न होगा, वह उस कचरे का ही अध्ययन होगा। वह फ्रायड के मनोविश्लेषण जैसा होगा। यही अंतर है स्वाध्याय और फ्रायड के मनोविश्लेषण के बीच। फ्रायड का मनोविश्लेषण वर्षों चल सकता है-पांच वर्ष, दस वर्ष-और फिर भी बात समाप्त नहीं होती. कूड़ा-करकट निकलता ही जाता है। तुम हमेशा-हमेशा जारी रख सकते हो। कचरा अंतहीन है, क्योंकि वह अपने आप इकट्ठा होता है : आज तुम फेंकते हो कचरे को, कल तुम फिर आ जाते हो मनोविश्लेषण के लिए; चौबीस घंटे में फिर कचरा इकट्ठा हो चुका होता है वहा। फिर तुम फेंकते उसे, फिर वह इकट्ठा हो जाता है। जब तक तुम्हारी जिंदगी का पूरा आधार ही नहीं बदल जाता, तुम इकट्ठा करते ही रहोगे कूड़ा-करकट। तो बात कूड़े-कचरे को फेंकने की नहीं है-तुम इकट्ठा करते रहते हो उसे। तुम्हारा जीने का ढंग ऐसा है कि तुम उसे इकट्ठा करते हो; तुम चिपकते हो उससे। जब तक कि वह ढंग न बदले, जब तक कि वह जीवन-शैली न बदले, तुम स्वयं का अध्ययन नहीं कर सकते। तुम एक भीड़ हो और तुम्हारा 'स्व' भीड़ में खो चुका है। पतंजलि बहुत वैज्ञानिक ढंग से चलते हैं। तप-संयम के बाद जब तुम बहुत सरल-सहज हो जाते हो, कोई कचरा इकट्ठा नहीं होता, जब तुम इतने संतुष्ट हो जाते हो कि कोई आकांक्षा तुम में नहीं बचती, जब तुम इतने निर्दोष और शुद्ध हो जाते हो कि कोई बोझ नहीं रहता-तुम सुगंध की भांति हो जाते हो; निर्भार, पंख पसार उड़ने लगते हो हवा में, हवा पर तिरते हो तब स्वाध्याय। अब तम स्वयं का अध्ययन कर सकते हो। स्वाध्याय कोई आत्म-विश्लेषण नहीं है; वह है स्वयं को देखना। वह है स्वयं पर ध्यान करना। और स्वाध्याय के बाद है नियम का अंतिम चरण-ईश्वर के प्रति समर्पण। असल में पतंजलि जिस ढंग से चलते हैं वह बहुत अदभुत है। उन्होंने प्रत्येक चरण पर वर्षों सोचा होगा, क्योंकि ठीक इसी तरह होता है यह। जब तुमने स्वयं का अध्ययन कर लिया होता है, केवल तभी तुम समर्पण कर सकते हो, क्योंकि अन्यथा तुम समर्पित क्या करोगे? स्वयं को ही करना होता है समर्पित। यदि तुम स्वयं को ठीक से समझ लेते हो, केवल तभी तुम समर्पण कर सकते हो। अन्यथा कैसे तुम समर्पण करोगे? लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, 'हम समर्पण करना चाहते हैं।' लेकिन तुम क्या समर्पित करोगे मुझे? अभी तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम्हारा समर्पण खोखला है। तुम्हें मौजूद होना चाहिए समर्पित होने के लिए। पहली बात, एक केंद्रीभूत आत्मा की जरूरत है