________________ तुम रोज उपयोग करते हो अपने शरीर का, उस पर धूल जमती रहती है। तुम रोज उपयोग करते हो मन का, तो विचार एकत्रित होते रहते हैं। विचार धूल की भांति ही हैं। संसार में रह कर कैसे तुम बिना विचारों के जी सकते हो? तुम्हें सोच-विचार करना पड़ता है। शरीर पर धूल जमती है और वह गंदा हो जाता है, मन विचारों को इकट्ठा करता है और वह गंदा हो जाता है। दोनों को जरूरत होती है एक अच्छे स्नान की। यह बात तुम्हारी जीवन-शैली का अंग बन जानी चाहिए। इसे नियम की भांति नहीं लेना चाहिए; यह सुंदरता से जीने का एक ढंग होना चाहिए। और यदि तुम शुद्ध हो तो दूसरी संभावनाएं तुरंत खुल जाती हैं, क्योंकि हर चीज जुड़ी है दूसरी चीज से; एक श्रृंखला है। और यदि तुम जीवन को रूपांतरित करना चाहते हो तो सदा प्रथम से ही शुरुआत करना। नियम का दूसरा चरण है-संतोष। वह व्यक्ति जो स्वस्थ, निर्भार, निर्बोझ, ताजा, युवा, कुंआरा अनुभव करता है, वही समझ पाएगा कि संतोष क्या है। अन्यथा तो तुम कभी न समझ पाओगे कि संतोष क्या होता है-यह केवल एक शब्द बना रहेगा। संतोष का अर्थ है : जो कुछ भी है सुंदर है; यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष; संपूर्ण अस्तित्व जैसा है उस के प्रति 'हो' कहने की अनुभूति है संतोष। साधारणतया मन कहता है, 'कुछ भी ठीक नहीं है।' साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायते'यह गलत है, वह गलत है। साधारणतया मन इनकार करता है : वह 'न' कहने वाला होता है, वह 'नहीं सरलता से कह देता है। मन के लिए 'ही' कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम 'ही' कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की कोई जरूरत नहीं होती। क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम 'नहीं' कहते हो, तो मन आगे और आगे सोच सकता है, क्योंकि 'नहीं' पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है, वह तो एक शुरुआत है। नहीं एक शुरुआत है; ही अंत है। जब तुम ही कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बडबडाने-कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता–कुछ भी नहीं रहता। जब तुम ही कहते हो, तो मन ठहर जाता है, और मन का वह ठहरना ही संतोष है। संतोष कोई सांत्वना नहीं है-यह स्मरण रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे तसल्ली दे रहे होते हैं स्वयं को। नहीं, संतोष सांत्वना नहीं है, सांत्वना एक खोटा सिक्का है। जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते। वस्तुत: भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि 'यह कोई ढंग नहीं है।' तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, 'मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।'