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छठवां प्रश्न:
यदि लाओत्सु और पतंजलि आज मिलें तो क्या वे आत्मिक-विकास संबंधी अपनी शिक्षाओं को समन्वित कर सकेंगे? यदि उनके बुद्धत्व के बीच कोई भेद नहीं है तो उनकी शिक्षाओं में इतना भेद क्यों है? और आप से पहले युगों-युगों में ऐसा कोई गुरु क्यों नहीं हुआ जिसने कि पिछले बुद्ध पुरुषों की सारी शिक्षाओं को जोड़ा और संश्लेषित किया हो?
प्रश्न तीन हिस्सों में है। पहला हिस्सा है : 'यदि लाओत्सु और पतंजलि आज मिलें तो क्या वे
आत्मिक-विकास संबंधी अपनी शिक्षाओं को समन्वित कर सकेंगे?'
यदि वे मिलते हैं तो वे समन्वित करने के लिए कुछ न पाएंगे-हर चीज समन्वित ही है। वे गले मिलेंगे, हाथ में हाथ लेकर बैठेंगे, लेकिन बोलेंगे नहीं। वे ऐसा ही कर रहे होंगे कहीं स्वर्ग में; क्योंकि हर चीज समन्वित ही है। समस्या तुम्हारे लिए है, उनके लिए नहीं। समस्या उनके लिए है जो मार्ग पर हैं; उनके लिए नहीं है जो मंजिल पर पहुंच गए हैं, क्योंकि मंजिल पर सब मार्ग मिल जाते हैं। मंजिल एक है; मार्ग अनेक हैं। एक मार्ग पर चलते हुए तुम अनुभव करते हो कि दूसरा किसी और मार्ग पर यात्रा कर रहा है। लेकिन मंजिल कर तुम अचानक पाते हो कि हर कोई एक ही मंजिल पर पहुंचता है। सत्य एक ही है।
इसलिए किसी समन्वय का कोई प्रश्न नहीं उठता। किसी संश्लेषण की कोई जरूरत नहीं होती, हर चीज पूर्णरूपेण संश्लिष्ट है। उनके बीच हंसी-मजाक चल सकता है या वे मजे से चाय पी सकते हैं, लेकिन कोई दार्शनिक चर्चा न होगी-इतना पक्का है। वे ताश खेल सकते हैं या ऐसी ही कोई दूसरी गैर-गंभीर चीज, लेकिन कोई बौदधिक विचार-विमर्श न होगा।
मैं सदा सोचता हूं कि स्वर्ग में, जहां मुक्त पुरुष हैं, वे क्या करते होंगे? वे जरूर ताश खेलते होंगे, शतरंज-निरर्थक चीजें। और क्या करोगे तुम वहां? खेलोगे। और खेल में कोई प्रतियोगिता नहीं है वहा, क्योंकि प्रतियोगिता तो गंभीर हो जाती है। खेल तो बस खेल है। तुम मजा लेते हो उसका छोटे बच्चों की भांति।
प्रश्न का दूसरा हिस्सा है : 'यदि उनके बुद्धत्व के बीच कोई भेद नहीं है तो उनकी शिक्षाओं में इतना भेद क्यों है?'