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ली गई है। असल में वृक्ष को अच्छा लगता है कि तुम आए । वृक्ष आनंदित होता है कि वह जरूरत में किसी की मदद कर सका। वृक्ष समृद्ध होता है कि तुम आए और वृक्ष कुछ बांट सका फल तो वैसे भी गिर ही जाते। वृक्ष बांट सका किसी के साथ तुमने न केवल अपनी मदद की, तुमने वृक्ष की भी मदद की चेतना में विकसित होने में ।
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अहिंसक होने का अर्थ है हितैषी होना, सब की मदद करना - अपनी भी और दूसरों की भी। यह है का प्रथम आयाम प्रेम है पहला आत्म- अनुशासन ।
किसी ने संत अगस्तीन से पूछा, 'मैं बिलकुल बेपढ़ा-लिखा आदमी हूं और मैं नहीं जानता कि क्या करूं और क्या न करूं। और हजारों शास्त्र हैं और लाखों सिद्धात हैं और मैं भ्रम में पड़ा हूं क्योंकि कोई कुछ कहता है, कोई और उसके एकदम विपरीत कहता है - और मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं और क्या न करूं। आप महान व्यक्ति हो, बहुत बुद्धिमान, संत : बस एक शब्द बता दें मुझे, जिससे कि बिना किसी भ्रम के मैं उसी पर चल सकूं।'
संत अगस्तीन एक कुशल उपदेशक था। वह घंटों बोल सकता था, लेकिन किसी ने भी संपूर्ण धर्म को एक शब्द में नहीं पूछा था। उसने अपनी आंखें बंद कर ली, ध्यान किया, क्योंकि कठिन थी बात, और फिर उसने अपनी आंखें खोलीं और कहा, 'तो तुम जाओ और प्रेम करो। यदि तुम प्रेम करते हो तो सब ठीक है।'
अहिंसा का अर्थ है प्रेम । यदि तुम प्रेम करते तो सब ठीक हो जाता है। यदि तुम प्रेम नहीं करते, तो चाहे तुम अहिंसक भी हो जाओ तो बेकार है और क्यों पतंजलि इसे पहला यम, पहला अनुशासन कहते हैं? प्रेम पहला अनुशासन है, आधार है। यदि तुम में कोई भाव भी बच रहता है दूसरों को चोट पहुंचाने का, तो जब तुम शक्तिशाली होओगे तो खतरनाक हो जाओगे। वही बचा हुआ जरा सा खतरा बन जाएगा। तुम में लेश मात्र भाव नहीं बचना चाहिए किसी को चोट पहुंचाने का और वह प्रत्येक व्यक्ति में होता है।
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और तुम हजारों-लाखों ढंग से चोट पहुंचाते हो और तुम ऐसे-ऐसे तरीकों से चोट पहुंचाते हो कि कोई बचाव भी नहीं कर सकता है। कई बार तुम 'अच्छे' तरीकों से चोट पहुंचाते हो-अच्छे कारणों से, अच्छे बहानों से तुम किसी व्यक्ति से कुछ कहते हो जो शायद ठीक भी है और तुम कहते हो, 'मैं सच कह रहा हूं लेकिन भीतर गहरे में इच्छा होती है उस सच द्वारा दूसरे को चोट पहुंचाने की । तब सच झूठ से बदतर होता है। उसे न कहना ठीक है। यदि तुम अपने सत्य को प्रीतिकर और सुखद और सुंदर नहीं बना सकते, तो बेहतर है उसे कहो ही मत। और सदा अपने भीतर देखना कि तुम ऐसा किस लिए कह रहे हो। गहरे में इच्छा क्या है? क्या तुम सत्य के नाम पर दूसरे को चोट पहुंचाना चाहते हो? तब तुम्हारा सत्य पहले से ही विषाक्त है : वह धार्मिक नहीं है, वह नैतिक नहीं है - वह पहले से ही अनैतिक है छोड़ो ऐसा सत्य ।