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परमात्मा की आकांक्षा नहीं की जा सकती। तुम परमात्मा को अपनी आकांक्षा का विषय नहीं बना सकते; वह उसकी विशुद्धता को नष्ट करना है। बुद्धत्व की आकांक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि बुद्धत्व केवल तभी घटता है जब कोई आकांक्षा नहीं रहती। और बुद्धत्व कुछ ऐसी बात नहीं जो बाहर से आती है। जब मन आकांक्षा से मुक्त हो जाता है, तो अचानक तुम भीतर बैठे सम्राटों के सम्राट के प्रति सजग होते हो। वह सदा से वहां है, लेकिन तुम्ही इतने ज्यादा उलझे हए थे आकांक्षा में और पहुंचने में और पाने में और उपलब्ध होने में।
उपलब्धि की आकांक्षा से भरा मन ही बाधा है। इसलिए अच्छा है कि तुमने बुद्धत्व की पूरी तरह आशा छोड़ दी है।
लेकिन मैं नहीं समझता कि तुमने पूरी तरह आशा छोड़ दी है-अन्यथा तो घटना घट गई होती। तुम ठीक कहते हो : यद्यपि प्रकट में तो तुमने पूरी तरह आशा छोड़ दी है बुद्धत्व की, लेकिन गहरे में तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो उसके, आकांक्षा कर रहे हो उसकी। प्रकट में तुमने छोड़ दी होगी आशा, लेकिन कहीं गहरे में आशा जरूर बनी है, वरना तो कोई समस्या ही नहीं है कि बुद्धत्व घटित क्यों नहीं हुआ। उसे तो तुरंत घटना चाहिए-स्व पल का भी अंतराल नहीं होता। यह बिलकुल निश्चित है। जब आकांक्षा ने तुम्हें पूरी तरह छोड़ दिया होता है, तो बुद्धत्व घटता ही है। वस्तुत: वह और कुछ नहीं है-तुम ही हो आकांक्षारहित।
तो थोड़ा गहरे तलाशना, थोड़ा और गहरे खोदना अपने भीतर, तुम फिर पाओगे आकांक्षाओं को वहा, पर्ते हैं आकांक्षाओं की; और उन्हें फेंकते जाओ। प्याज को परी तरह छील डालो एकदम भीतर तक। एक दिन घटना घटेगी। किसी भी दिन संभव है वह। किसी भी क्षण, जब कोई आकांक्षा नहीं होती, उसकी कोई स्फुरण। भी नहीं होती-कोई कंपन नहीं, कोई तरंग नही-और चेतना निधूम होती है; कामना,
आकांक्षा का कोई धुंआ नहीं होता; केवल चेतना की ज्योति होती है, चेतना की लपट-अचानक तुम हंसने लगते हो, अचानक तुम्हें समझ आ जाती है बात कि जिसे तुम खोज रहे थे, वह तो तुम्हारे भीतर ही था।
यही मतलब है जीसस का जब वे जोर दिए जाते हैं कि 'प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है। यदि वह बाहर होता तो उसकी आकांक्षा की जा सकती थी; यदि वह कहीं बाहर होता तो उस तक पहुंचा जा सकता था किसी मार्ग से। व तुम ही हो! इसीलिए मैं कहता हूं कि मेरे पास कोई मार्ग नहीं है तुम्हें देने को। मैं तो केवल अपने बोध को बांट सकता हूं तुम्हारे साथ।
तीसरा प्रश्न: