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* द्वितीय सर्ग *
[ २१ प्रभूतत्कल्पे सहस्रारे नति-परिमपिते । स्वयंपभविमाने शशिप्रभो निर्जरो महान् 1१५३।। . परिझायावधिज्ञानात् प्राग्भवव्रतगं' फलम् । धर्म च शासने हनभावोऽमरोऽभवत् ।। ५४।। तत्रत्यचैत्य-गेहेषु महापूजां चकार सः । जिनाचाणा शिवापातिभक्त्यादी दिव्यपूजया ।५५। मेरुनन्दीश्वरादौ स करोति यजनं परम् । कृत्रिमाकृत्रिमाणां स्वर्गजेश्वारुवस्तुभिः ।।५६।। कुर्यात् केवलिनी सिद्ध तीर्थेशां च महामहम् । कल्याणे दिव्यसामग्या स्वपरीवारमण्डितः । ५७ इत्यादि विविधं पुण्यं विश्वाम्मृदयसाधनम् । तनोति संततं मुक्त्यं देवोऽने कद्धिभूषितः ।।५८।। देवीनिकरसंभूतैर्नतनैश्च मनोहरैः । गीतमधुरैः क्रीडनविनोदेस्तु जल्पनैः ।।५६ ।। शृङ्गारालोकनैरप्सरसा भुक्ति प्रत्यहम् । सुखं रामादिभिः साद्ध दिव्यं स स्ववृषापितम्। ६० । करोति विविधा क्रीडां कीडाद्रो मन्दरेषु च । स्वेच्छयामा' स्वदेवीभिः सोऽसंख्यद्वीपवाधिषु । ८१ षोडशाब्धि प्रमाणायु प्राप्तकामसुलो महान् । देवीना शब्दमात्रेण मार्द्ध त्रयकरन्नतिः ।। ६२।। धर्म, व्रत तथा संन्यास के फलस्वरूप वह सहलार स्वर्ग के अनेक ऋद्धियों-संपदानों से सुशोभित स्वयप्रभ विमान में शशिप्रभ नामका महान देव हुा ।।५२-५३॥ अवधिज्ञान से छह देव, इसे पूर्वभव सम्बन्धी प्रत मे उत्पन्न फल जानकर धर्म और जिनशासन में हड श्रद्धानी हो गया ॥५४॥ उसने सर्व प्रथम कल्याण प्राप्ति के लिये वहां के चंत्यालयों में विद्यमान जिन प्रतिमानों की भक्तिपूर्वक उत्तम सामग्री से महा पूजा की ॥५५।। तदनन्तर सुमेरु पर्वत और नन्दीश्वर द्वीप आदि में विद्यमान कृत्रिम प्रकृत्रिम प्रतिमाओं को स्वर्ग में उत्पन्न हुए उत्तम द्रव्यों से उत्कृष्ट पूजन की ॥५६॥ वह अपने परिवार से सुशोभित होता हुआ सिद्धि प्राप्ति के लिये कल्याएको के समय सामान्य केलियों तथा तीर्थंकरों की, दिव्य सामग्री से महामह पूजा करता था ॥५७।। इस प्रकार अनेक ऋद्धियों से विभूषित वह देव, मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर समस्त अभ्युदयों के साधन स्वरूप नाना प्रकार वे पुण्य को करता था ॥५६॥ देवियों के समूह से उत्पन्न मनोहर नृत्यों, मधुर संगीतों, उत्तम क्रीडानों, विनोदपूर्ण वार्तालापों तथा अप्सरामों के शृङ्गार पूर्ण प्रबलोकनों से वह देव प्रतिदिन देवाङ्गनाओं के साथ, अपने धर्म के द्वारा प्राप्त हुए दिव्य सुख का उपभोग करता था ॥५६-६०॥ वह क्रीडाचल, मन्दरगिरि और असंख्यात द्वीप समुद्रों में अपनी देवियों के साथ इच्छानुसार नाना प्रकार की क्रीडा करता था ॥६१॥ उसको प्रायु सोलह सागर प्रमाण थी, उसे देवियों के शब्द सुनने मात्र से काम का सुख प्राप्त होता था, वह महान् उत्कृष्ट था, साढ़े तीन हाथ ऊंचाई वाला था, परिणमा आदि पाठ गुणों के ऐश्वर्य से १. प्राक्तनप यकृतश्रतोद्ध तं २. जिनप्रतिमाना ३. पूजनं ८. महाराजाम ५. गर्भादिकल्याणकेषु धर्मापिनं । ७. सदर पोडा नागरमितायुक ।