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* श्री पाश्वनाथ चौरत * प्रासादशिखराग्रस्थकेतुहस्तैविराजते । याह्वयत्तीव नाकेशा' पुण्यभाजां विमुक्तये ॥६॥ उत्तु गातोरण रत्नबिम्बोधवंजपंक्तिभिः । धर्मोपकरणदिग्यातायातनृयुग्मकः ॥१०॥ गीतनतनवाशे च जयनन्दस्तवादिभिः ।विभ्राजन्ते जिनामारा उत्तु ङ्गारवा वृषाब्धयः।।११। यत्रत्या: सुजना: केचित्तपसा यान्ति नि तिम् । कल्पातीतास्पदं केचित्केचिन्नाकं शुभोदयात् ।।१२।। पात्रदानाजितायेन' केचिद्भोगान् श्यन्ति च । भोगभूमौ सुराज्यादिभूति केचिज्जिनाचया ।।१३।। पश्यन्ति स्वगृहद्वारं पात्रदानाय दानिनः । पात्रदानेन के चिच्च पञ्चाश्चयं भजन्त्यहो ॥१४।। तद्विलोक्य जना: केचित्पात्रदाने मति व्यधुः । पात्रालाभेन केचिद्धि विषादं परमं व्यगु: ।।१५।। ज्ञानविज्ञानसंपना व्रतशीलादिमण्डिता: ! जिन भक्ताः सदाचारा गुरुसे वापरायणा: ॥१६॥ नीतिमार्गरता जैना धनधान्यादिरांकुलाः । रूपलावण्यभूषाढ्या नरामार्यो विचक्षरणाः ।।१७।। यस्यां वसन्ति पुण्येन सुभगाश्च शुभाशयाः । धर्जिनपरा नित्यं दानपूजादितत्परा: ॥१८॥ भवन शिखरों के अग्रभाग पर स्थित पताका रूपी हाथों से जो नगरी ऐसी सुशोभित हो रही है मानों मुक्ति प्राप्त करने के लिये पुण्यशाली इन्द्रों को बुला हो रही है ॥६॥ जहां के ऊचे ऊचे जिन मन्दिर, उन्नत तोरणों, रत्नमय प्रतिमाओं के समूहों, ध्वजानों को पंक्तियों, धर्म के विष्य उपकरणों, माने जाने वाले मनुष्यों के युगलों, गीत नृत्य वावित्रों तथा जय, नन्व, स्तवन प्रादि के शब्दों से ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों धर्म के सागर ही हों॥१०-११। जहां पर उत्पन्न होने वाले कोई सत्पुरुष तप के द्वारा निर्धारण को प्राप्त होते हैं, कोई पुण्योदय से कल्पातीत विमानों में और कोई फल्पों-सोलह स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं ।।१२।। पात्रदान से अजित पुण्य के द्वारा कोई भोगभूमि में भोगों को प्राप्त होते है और कोई जिन पूजा से उत्तम राज्यादि के वैभव को प्राप्त करते हैं ।।१३।। अहो ! कोई वामी पुरुष पायदान के लिये अपने घर का द्वारा प्रेक्षरण करते हैं और कोई पात्र दान के द्वारा पञ्चाश्चर्य को प्राप्त होते हैं ॥१४॥ पञ्चाश्चर्य को देखकर कोई लोग पात्रदान में बुखि लगाते हैं-पात्रदान की इच्छा करते हैं और कोई पात्र का लाभ न होने से परम विषाद को प्राप्त होते हैं ॥१५॥ जो ज्ञान और विज्ञान से संपन्न हैं, व्रत शील प्रादि से विभूषित हैं, जिनभक्त हैं, सदाचारी हैं, गुरु सेवा में तत्पर हैं, नीति मार्ग में रस हैं, जन हैं, धन धान्य प्रादि से सहित हैं, रूप, लावण्य और प्राभूषणों से युक्त हैं, विवेकी हैं, सौभाग्यशाली हैं, शुभ अभिप्रायवाले हैं, धर्म के उपार्जन करने में तत्पर हैं तथा निरन्तर दान पूजा प्रादि में संलग्न रहते हैं ऐसे मनुष्य पुण्योदय से जिस नगरी में निवास करते हैं ।।१६-१८॥
१. देबेन्द्राणा २. उत्त शाश्च वृपाययः क. ३. पात्रदानम मृत्पन्न-पुण्येन ४. प्रामु ५. नार्यों क. ६. सुण्दाग ।