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२२६ ।
* श्री पाना रित*
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भार्थवावसरे तस्मिन् पाण्याप्रमत्तता पराम् । निर्विकल्पपदारूढः परमध्यानतस्परः ॥८६॥ अम्लनिर्ममता सम्बारोह पकाभिधाम् । श्रेणी स जगतो नायो निःश्रेणी मोक्षसद्मनः । वनाश्वष्टकषायारीन् देखसर्वव्रतान्सरान् । रागमूलास्त्रिवेदांश्च नोकपारिपून्परान 18 क्रोनं संज्वलनं मान माम संज्वलनाभिधाम् । अपान क्रमतो योगी ह्याबशुक्सासिना तदा ।।२।। अयभूमि सतो लम्वा सूक्ष्मलोभमहारिपुम् । जवान श्रीणिनः सूक्मसापराययमासिना ।।३।। गुणस्थाममपास्पृश्य होकादशममेष । उत्पत्य प्राभवरक्षीणकषायो मोहनाशात् ॥६४।। ततो द्वादशमं.. प्रारुह्य गुणस्थाममजसा । तस्यान्ते शेषधातीनि विकर्माणि निहत्य स: ।१५।। सवेकत्वरितकावीचारशुक्लायुधेन हि । महाभट इवात्ययं स्वीकार जिनोसमः ॥१६॥ केवलभानसाम्राज्यं विश्वमूत्येकमन्दिरम् । अनन्तशर्मकर्तारं त्रिजगत्पतिमानितम् ॥६७|| चैत्रमासे शुभे कृष्णपक्षे विशाखनामनि । नक्षत्रे च चतुर्दश्यां पूर्वाहे मासिघातकृत् 16|| स्वशक्स्योत्पादयामास केवलज्ञानमद्भुतम् । अनन्तमहिमोपेतं लोकालोकाग्रदीपकम् ।।EET
प्रधानन्तर उसी अवसर पर उत्कृष्ट अप्रमत्त दशा प्राप्त कर जो निर्विकल्प पर पर पारन है तथा परात्मास्वकीयशुद्धस्वरूप के ध्यान में तत्पर हैं ऐसे जगत्पति पार्य निमेन्द्र, अन्तरङ्ग को निर्मलता को प्राप्त कर मोक्ष महल की सीढी स्वरूप क्षपक श्रेणी पर पाहुए ॥६-६०॥ वहां योगिराज पारर्य जिनेन्द्र ने उस समय पृथक्त्ववितर्कवीचार मामक प्रथम शुक्लध्यान के द्वारा शीघ्र ही देशचारित्र तथा सकलचारित्र को धातने वाले प्रात्याल्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण नामक माठ कषायरूप सबुओं को, राग के मूलभेद तीन वेदों को, नो कषायरूप परम शत्रुओं को, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संदलन माया को क्रम से मष्ट किया ॥६१-६२ तबमातर भी जिनेन्द्र ने विजयभूमि को प्राप्त कर सूक्ष्म सांपराय संयमरूपी तलवार के द्वारा सूक्ष्मलोभ नामक महाशत्रु का घात किया ॥३॥ तत्पश्चाद मोह कर्म का क्षय करने वाले भगवान् ग्यारहवें गुरणस्थान का स्पर्श किये बिना ही क्षीण कषाय-बारहवें गुणस्थान वर्ती हो गये ॥४॥ तदनन्तर बारहवें गुरणस्थान में चढ़ कर उसके अन्त समय में उन्होंने शेष तीन घातिया कर्मों का वास्तविक नाश किया ॥६५॥ वहां उन्होंने एकत्ववितकवीचार नामक शुक्लध्यानरूपी शस्त्र के द्वारा महान योद्धा के समान उस केवलज्ञानरूपी साम्राज्य को प्राप्त किया जो समस्त संपदाओं का एक अद्वितीय मन्दिर है, अनन्त सुख को करने वाला है और तीन जगत् के स्वामियों द्वारा सन्मानित है ॥६६-६७।। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाद्ध काल में विशाखा नक्षत्र में घातिया कर्मों का घात करने वाले पाश्वं जिनेन्द्र ने अपनी मात्मशक्ति के द्वारा वह केवलज्ञान उत्पन्न किया जो अद्भुत था, अनन्तमहिमा १. तत्र प्राणु प्रष्टकायारीन इतिच्छेदः ।