Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 259
________________ २४६ ] ● प्रोपाथ चरित # एकोनविंशतितमः सर्गः , श्रीमते विश्वनाथाय सर्वज्ञाय जिनेशिने | त्रिजगद्गुरवे मूर्ध्ना नमोऽस्तु सर्वदर्शिने ॥१॥ श्रथाष्टप्रातिहार्याणि महान्ति स्युर्जगद्गुरोः । तन्मध्ये विष्टरं दिव्यं स्मात्पूर्ववरिणतं परम् || २ || समाप्त नभोभागात्सुमी' वृष्टिरभुता | मुक्ता देवकरैः संपूर्ण जिनास्थानमञ्जसा ||३|| गुन्मत्तानिभिः सारा गायन्तीव जिनोत्सवम् । दिव्यामोदाघनाशसुगन्धी कृतखभूतला |२४|| पर कलोत्पन्न मंरिपुष्प मनोहरः | दिव्यशाखा पाख्यैश्च मरुदान्दोलितः परैः ||५|| जिनाभ्याशे प्रकुर्वप्रियालोको नर्तनं महत् । व्यभादन्वर्थनामात्र त्रिजगच्छोकघातनात् ॥६।। परादर्थं मरकोटीभिः पिनद्धदण्डमास्टरम । छत्रत्रयं विभो नि जितादित्येन्दुसत्प्रभम् 11७1 रुरुचे सुम्दरं श्वेतं शुक्लध्यानशिखाचयम् । इवाभ्यन्तरपूर्णस्वाद्दणमद्वार निर्गतम् गदा एकोनविंशतितम सर्ग जो अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित थे, सबके स्वामी थे, सर्वज्ञ थे, जिनेन्द्र थे, तीनों जगत् के गुरु थे, तथा सर्वदर्शी थे उन पार्श्वनाथ भगवान् को मेरा शिर से नमस्कार ॥१॥ प्रधानन्तर जगद्गुरु श्री पार्श्व जिनेन्द्र के प्राठ महाप्रातिहार्य प्रकट हुए । उस गन्धकुटी के मध्य में जिसका पहले वर्शन किया जा चुका है ऐसा उत्तम सुन्दर सिंहासन था || २ || प्रकाश से देवों के हाथों से छोड़ी हुई प्राश्चर्य कारक पुष्पवृष्टि समयसरप को अच्छी तरह व्याप्त कर पड़ रही थी || ३ || दिव्य गन्ध के द्वारा पापों को नष्ट कर जिसने श्राकाश और पृथिवीतल को सुगन्धित कर दिया था ऐसी वह श्रेष्ठ पुष्पवृष्टि गुजार करते हुए मतभ्रमरों से ऐसी जान पड़ती थी मानों जिनेन्द्र भगवान् के केवलज्ञान महोत्सव का गान ही कर रही हो ||४|| मरकतमणियों से उत्पन्न पत्रों, मनोहर मणिमय पुष्पों और वायु से हिलती हुई उत्कृष्ट दिव्य शाखा उपशाखाओं से जो जिनेन्द्र भगवान् के निकट बहुत भारी नृत्य करता हुआ सा जान पड़ता था ऐसा अशोकवृक्ष तीनों जगत् का शोक नष्ट करने से सार्थक नाम को धारण करता हुआ सुशोभित हो रहा था ।।५-६ ।। जो करोड़ों श्रेष्ठ मरियों से खचित दण्ड से देदीप्यमान हो रहा था, जिसने सूर्य और चन्द्रमा की उत्तम प्रभा को जीत लिया था, ओ सुन्दर था, श्वेत था और भीतर का स्थान परिपूर्ण हो जाने १. कुसुमानामियं कौनी ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328