Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 313
________________ ३०० ] . •बी पावनाप धरित. यतो ज्ञानवृत्तादिरत्नोघमूल्यवजितः । तपःशीलादिरनैश्च मोहादिष्वान्तनाशनः ॥६॥ युतो भव्योघसार्थानां सार्थवाहो महाधनी । शिवानि ददारयेवानिशं रस्मान्यनेकशः ॥१०॥ केभ्यश्च दृष्टि रत्नान्मन्येभ्यो ज्ञान मणींश्च सः। परेभ्यो वृत्तरत्नानि दवाव्यम्य एव हि ॥११॥ नदथिभ्यस्तपोरत्न शील रत्नानि चानिशम् । स दत्त कल्पशाखीय मनोऽभिलषिसं फलम् ।१२।। ततोऽसौ विश्वलक्ष्म्याढयो महादातात्र कथ्यते । बुधर्मध्ये मुदा न.एगा सर्वदानविधी अमः ।।१३।। पत्किञ्चिद्दर्लभ वस्तु य ईडन्तेतिलोभिनः । दद्याभ्यः स्वकीयं स समस्त वा पदं निजम् ॥१४॥ यद्यही स्वर्गमूस्यादीनभव्येभ्यः स ददात्यपि । ततो न भुबने दाता जास्वन्यस्तत्समो महान् ।१५।। तद्दिव्यध्वनिसूर्याशुभिविश्दे प्रकटीकृते । तदान्धे दुर्मता भान्ति खद्योता इव नि:प्रभा ॥१६॥ जिनभानूद ये संचरन्ति साधुमुनीश्वराः । तदा कुलिङ्गिनो मन्दा नश्यन्ति तस्करा इव ॥१७॥ कुरुकोशलकाशोसुझावन्तीपुण्डमाल पान्प्र ङ्गवङ्गकलिङ्गास्यपञ्चालमगधाभिषान् ।।१८।। जिस कारण वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी प्रमूल्य रत्नों तथा मोहादिक अन्धकार को नष्ट करने वाले तपशील आदि रत्नों से युक्त थे उस कारण भव्य समूह रूप व्यापारियों के बीच महा धनवान् सार्थवाह-प्रमुख व्यापारी थे और इसीलिए वे मोक्ष के मार्ग में निरन्तर अनेक रत्नों को देते ही रहते थे ।।९-१०।। किन्हीं भन्यों के लिए वे सम्यग्दर्शन रूपी रत्न देते थे तो अन्य भव्यों के लिये मानरूपी मार्ग प्रणाम करते थे और दूसरे भव्य जीवों के लिये चारित्र रूपी रत्न देते थे ॥११॥ जिस प्रकार करूप वृक्ष मन चाहे फल को देता है उसी प्रकार के इच्छुक मनुष्यों के लिये निरन्तर तप रूपी रत्न और शील रूपी रत्न देते रहते थे ॥१२॥ इसीलिये वे इस जगत में विद्वानों के द्वारा बड़े हर्ष से मनुष्यों के मध्य सर्वदान में समर्थ समस्त लक्ष्मी से युक्त महादाता कहे जाते थे ॥१३॥ अत्यन्त लोभी मनुष्य जिस किसी दुर्लभ वस्तु को बाहते थे उन्हें यह संभ वस्तु तथा प्रपना समस्त पद प्रदान करते थे ॥१४॥ जब कि वे भव्य जीवों के लिए स्वर्ग तथा मोक्ष प्रादि प्रदान करते थे तब इस जगत् में उनके समान दूसरा वासा कभी नहीं था ॥१५॥ जब उनकी दिव्यध्वनि रूपी सूर्य की किरणों से समस्त विश्व प्रकटिसप्रकाशित हो गया तब अन्य मिथ्या मतावलम्बी नीव जुगनूनों के समान प्रभा रहिल हो गये ॥१६॥ उस समय जिनेन्द्र रूपी सूर्य का उदय होने पर मुनिराज अच्छी तरह विवरण करते थे और हीन बुद्धि कुलिङ्गी चोरों के समान नष्ट हो गये थे ॥१७॥ समीचीन मार्ग का उपदेश देने में उद्यत श्री पार्श्व जिनेंद्र ने बड़े वैभव के साथ कुरु, कौशल, काशी, सुह्म, अवंती, पुण्ड, मालव, प्रम, बङ्ग, कलिङ्ग, पञ्चाल, मगभ,

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