Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 326
________________ - nnnnn - त्रयोविंशतितम सर्ग [ ३१३ माराध्या भव्यलोकेरगतिसुखकरास्तीर्थनाथापच सिद्धा ये तेऽनन्ता मुनीन्द्रा; शुभसुखसदनं मङ्गलं च प्रदा: ।। ६६ ।। मालिनी जिनवररुचि मूलो ज्ञानसत्पीठबन्धः, सकल चरण शालो दानपत्रप्रसूनः । शिव सुख फलनम्रो धर्मकल्पद्रुमो :वोऽस्तु सुशिवफलकामैः सेम्य एवाष्टसिद्धय ।।१७।। शार्दूलविक्रीरितम् धर्मो विश्वसमीहितार्थजनको धर्म व्यधुर्धामिका धर्मेणाशु शिवं भजन्ति मुनयो धर्माय मुवत्यै नमः । धर्मान्नास्त्यपरोऽखिलार्थसुखदो धर्मस्य मूलं सुहा धर्मे चित्तमहं दघेऽन्तकमुखाद्ध धर्म रक्षाशु माम् ॥ १८ ।। सर्व श्रीजिनपुङ्गवाश्च विमला: सिद्धा अमूर्ता विदो विश्वाा गुरवो मिनेन्द्र मुखजाः सिद्धान्तधर्मादयः । कर्तारो जिनशासनस्य महिताः संवन्दिताः संस्तुता ये ते मेऽत्र दिशन्तु मुक्तिजनके शुद्धि च रत्नत्रये ।। ६६ ।। सुख को करने वाले तीर्थगुर, सिद्ध भगवान् तथा अनन्त मुनिराज मेरे लिये शुभ सुख के गृहस्वरूप मङ्गल प्रवान करें ॥६॥ जिनेंद्रभगवान की श्रद्धा हो जिसको जड है, सम्यमान हो जिसको पीड हैं, सकल चारित्र ही जिसको शाखाएं हैं, दान हो जिसके पत्ते और फूल हैं, जो मोक्ष सुखरूपी फलों से नम्रीभूत है तथा उत्तम मोक्षरूपी फल के इच्छुक मनुष्यों के द्वारा सेवनीय है ऐसा धर्मरूपी कल्पवृक्ष तुम सब को अरिणमा महिमा प्रादि पाठ सिद्धियों के लिये हो ॥६॥ धर्म, समस्त वाञ्छित पदानों को उत्पन्न करने वाला है, धार्मिक पुरुष धर्मको करते थे, मुनि धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं, मुक्ति प्राप्ति के लिये धर्म को नमसकार है, धर्म से बढकर समस्त सुखों को देने वाला दूसरा पदार्थ नहीं है, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, मैं धर्म में चित्त लगाता हूँ, हे धर्म ! यम के मुख से मेरी शीघ्र ही रक्षा करो ॥९॥ समस्त जिनराज-तीर्थकर, निर्मल प्रमूर्तिक और ज्ञान स्वरूप सिद्ध परमेष्ठी, सबके द्वारा पूजनीय गुरु, जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न सिद्धान्त धर्म प्रादि तथा जिन शासन के कर्ता जो मेरे द्वारा पूजित, वन्दित तथा संस्तुत हुए हैं वे सब इस जगत् में मुक्ति १. जिनेन्द्र चिः।

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