________________
२९
• मो पार्श्वनाथ परित.
मालिनी
सुरवरविहितश्पेति द्विसप्तप्रमों--पतिशयपरमः संभूषितम्तीर्घनापः । कृतबहुसुविहारो भव्यसंबोधनार्य भवतु जिनबरो मे स स्वमभूतिसिद्धर्ष ॥१.२।।
शार्दूलविक्रीडितम् यस्यैतेऽतिशया भवन्ति च चतुस्त्रिशत्प्रमा प्रातिहा--.
ण्यष्टौ विगतान्तमस्ति सकलं गानं परं दर्शनम् । वीर्य सौख्यमनारतं च स मया संपूजितः संस्तुतो
वारंवारसनन्तसद्गुणमयो मेऽस्तु स्वराज्याप्तये ।।१।।
मालिनी समवसरणयुक्तो वेष्टितः सर्वसंध-२मृतसमभिस्त पितामयः ।
दुरिततिमिरहंता केवलझानभाभिः प्रकटित शिवमार्गो म स्तमीडे' शिवाय ॥१०॥ इति भट्टारकीसकलकीतिविरचिते पाश्वनाथचरित्रे जिनेन्द्रविहारकर्मवर्णनो नाम कावि शतितमः सर्गः ॥२२॥
जो देवरचित चौदह उत्कृष्ट प्रतिसयों से विभूषित थे तथा भव्य जीवों के संबोष नायं जिन्होंने अद्भुत विहार किया था ऐसे वे पाश्वं जिनेन्द्र मुझे प्रारमानुभूति की प्राप्ति के लिये हों॥१०२॥ जिनके उपयुक्त चौतीस प्रतिशय थे, पाठ प्रातिहार्य ये और अनन्त. मान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तदीयं रूप प्रनन्त चतुष्टय निरन्तर विद्यमान थे, जिनकी मैंने बार बार अच्छी तरह पूजा और स्तुति की है तथा जो प्रमन्त सदगुणों से तन्मय येथे पार्श्वजिनेन्द्र मुझे स्वराज्य की प्राप्ति के लिये हों ॥१३॥ जो समवसरण में युक्त थे, सब संघों से-ऋषि मुनि यति और प्रनगार अथवा मुनि प्रायिका श्रावक और पाधिका इन चार प्रकार के संधों से परिवृत थे, अमृत तुल्य वचनों के द्वारा जिन्होंने अनेक भव्यजीवों को संतुष्ट किया था, जो पापरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले पेसमा जिन्होंने केवलज्ञान की प्रभा से मोक्षमार्ग को प्रकटित किया था उन पाश्वजिनेन्द्र की में मोक्ष प्राप्ति के लिये स्तुति करता हैं ॥१०४॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकोतिविरचित पार्श्वनाथचरित में बिनेन्द्र भगवान के विहार का वर्णन करने वाला बाईसवां सर्ग समाप्त हुा ।।२२॥ १. स्तौमि १.४