Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 316
________________ त्रयोविशतितम सर्ग. [ ३०३ .-- -main ---------- निर्वाणमा हि वस्था जिनेन्द्रोहिपयित्रिताम् । प्रायान्ति वन्दितु स्तोतु देवापच मुनयः खगा:४१ यत्र तीर्थेशमाहात्म्याद व्याघ्रादिरजातयः । बायां कुर्वन्ति जीवाना न मनाक कलुषातिगा। सर्वतु फलपुष्पादोन फलन्ति तरुजातयः । तीर्थेशसग्निधौ तत्र सम्छाया हि मनोहराः ।। इत्यादिवर्णनोपेतेऽचले तस्मिन् जिनाप्रणीः । मासक योगमारुध्य मौनालम्बी गतक्रियः ।।४।। षधिणन्मुनिभिः साद्ध प्रतिमायोगमादधे । शेषापात्य घहन्तार मुक्तिकान्तासुखाप्तये ।।४।। काययोगेऽतिसूक्ष्मे स्थिति कृत्वा मनो बचः । त्यक्त्वा शुक्लेन नाम्ना सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिना ४९ दासप्ततिप्रकृत्यरातीन अधान जिनेश्वर: । सयोग्यास्यगुणस्थानस्यैवान्त्यसमये द्रुतम् ।।४७ काययोग पुनस्त्यक्त्याशु प्रकृतीस्त्रयोदय । अयोग्याख्यगुणस्थाने सुर्य शुक्लासिना स्वयम् ।।८। लघुपञ्चाक्षरोच्चारकामेन विनिहत्य सः। कृत्स्नफर्माङ्गनिमुक्तो बभूनाभुतकर्मकृत् ।।४ तत: कायनयापाये नष्टे कर्माङ्गबन्धने । एकेन समयेनैव लोकानशिखर परम् ।।१०।। के लिये मुनि तथा विद्याधर पाते रहते हैं ॥४१॥ जहां सीर्थर भगवान के माहास्य से ध्यान प्रावि र जाति के तिर्यञ्च कलुष भाव से रहित होकर जीवों को पोड़ी भी बाधा नहीं करते हैं ॥४२॥ उस पर्वत पर तीर्थङ्कर भगवान् के सन्निपान में उत्सम खाया से युक्त मनोहर वृक्ष सब ऋतुओं के फल पुरुष प्रावि को फलते हैं ॥४३॥ इत्यादि बरसेना से सहित उस पर्वत पर श्री पाव जिनेंद्र ने एक माह का योग निरोध कर छसीस मुनियों के साथ मुक्ति रमा के सुख की प्राप्ति के लिये शेष अघातिया कर्मों को नष्ट करने वाला प्रतिमा योग धारण किया। इस समय वे मौन से सहित तमा हलन चलन प्रावि क्रियामों से रहित थे ।।४४-४५॥ मनोयोग और पचन योग को छोड़ कर तथा अत्यन्त सूक्ष्म काय योग में स्थित होकर श्री पार्व जिनेंद्र ने सूक्ष्मप्रियाप्रतिपाति शुक्ल ज्यान के द्वारा सयोगी गुण स्थान के अंत समय में बहत्तर प्रकृति रूपी सत्रुओं का शीघ्र हो नारा किया और फिर शीघ्र ही काय योग का त्याग कर अयोगी गुण स्थान में चतुर्थ शुक्ल ध्यान रूपी खड्ग के द्वारा तेरह प्रकृतियों का पांच लघु अक्षरों के उपचारण काल में स्वयं क्षय किया और इसके फल स्वरूप पद्धत कार्य को करने वाले पार्य प्रभु समस्त कर्मरूप शरीर से निमुक्त हो गये ॥४१-४६।। तदनतर प्रौवारिक तैजस और कामेण इन तीनों शरीरों का प्रभाव होने और कार्मरण शारीर का बंधन नष्ट होने पर वे एक ही समय में * यहां संपोज गली गुरण स्थान के अन्त में जो बहत्तर प्रकृतियों के कय का वर्णन किया है वह भारत है क्योंकि इनका क्षय प्रयोग केवली गुणस्थान के उपाय समय में होता है और शेष तेरह प्रकृसियों का अब पतय समय में होता है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान सयोग वली के अवाय होया है परन्तु उसमे कर्मों को निर्जरा ही होती है क्षय नहीं।

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