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* एकविंशतितम सर्ग *
वसन्ततिलका
प: संस्तुतश्च महितः प्ररगुतो गणौघे - देवो मयापि च मनागमर्ष सनिन्दितोऽसि जनेश्व तं संस्तुवे
मुदं न दधे कचित् ।
जिन पति
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बरतद्गुणाय ।। ११५ ।।
इति भट्टारक श्रीलकीर्तिविशेवसे पार्श्वनाथचरित्रे प्रश्नोत्तरनिरूपको नामैकविंशतितमः सगः ||२१||
जो बारह समानों के समूहों तथा मेरे द्वारा संस्तुत, पूजित और नमस्कृत होकर कभी भी हर्ष को धारण नहीं करते थे तथा प्रत्यन्स दुर्जनों के द्वारा निम्ति होकर र मात्र भी कोष को धारण नहीं करते थे उन पाश्वं जिनेन्द्र की मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिये सम्यक प्रकार से स्तुति करता हूँ ।। ११५ ।।
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीति द्वारा विरचित पार्श्वनाथ चरित में प्रश्नोत्तरों कां निरूपण करने वाला इक्कीसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥