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• श्री पार्श्वनाथ परित. तीर्थनापपर्व तेऽत्राप्नुवन्स्येव न संशयः । मनन्तमहिमारुढं जिगरक्षोभकारणम् ॥१.७॥ ये पति सी घार चारित्रं शाशनिर्मलम् । हत्वा विषयसन्तानं च्यारिपूजाविदूरगाः ॥१.' यतयस्तीतसंवेगा ध्यानाध्ययनसत्पराः । प्रहमिन्द्रविभूति से शर्मनानि भवन्ति च ॥१०॥ हत्वा पञ्चाक्षश म्ये दषते परणं तपः । दुःकरं शासने जैने भव्या निजितमानसाः ।।११।। देवलोके सुखं भुक्त्वा चक्रनापा भवन्ति ते । बदलण्डस्वामिनो रत्ननिधिदेवखगाधिपाः ।१११॥ नि:शादिगुणोपेतं दर्शनं चन्द्रनिर्मलम् । धर्मकल्पमस्येव मूलं युद्धं हि मानसम् ।।११२।। भवेद्रस्नत्रयं सर्वाङ्गित्या परमा भुवि । परोपकारमत्यन्तमाचारः स्वान्ययोहितः । ११३॥
मालिनी
इति निखिल सुपृच्छापरिक्तराशे विधाय, निरूपमवचनीघः प्रोत्तरं तीर्थनाथः । सकसगणिगणानां यश्चकाराभुतं प्र-मुदमसमपदाप्त्यं सोऽस्तु मे संस्तुतोऽत्र ।।११४।।
महिमा से युक्त तथा तीन जगत् के क्षोभ के कारण तीर्थकर पद को प्राप्त होते ही हैं इसमें संशय नहीं है ।।१०६-१०७॥ जो मुनि विषयों की सम्तति को नष्ट कर प्रसिद्धि तथा पूजा प्रावि से दूर रहते हुए घोर तप और चम्तमा के समान निर्मल चारित्र का पाचरण करते है, जो अत्यधिक संवेग से युक्त हैं तथा ध्यान और अध्ययन में तत्पर रहते हैं वे मुनि सुख को सान स्वरूप अहमिन्द्र की विभूति को प्राप्त होते हैं ॥१०५-१०६॥ मन को जीतने पाले जो भव्यजीव पञ्च इन्द्रियरूपी शत्रुनों को जीत कर जैन शासन में प्रतिशय कठिन तपश्चरण करते हैं वे स्वर्ग के सुख भोगकर छह खण्ड के स्वामी, तथा बौदह रस्म नो निषि वेद और विद्याधरों के स्वामी चक्रवर्ती होते हैं ॥११०-१११॥ जो निःपाडू मावि गुणों से सहित है, चन्द्रमा के समान निर्मल है तथा धर्म रूपी कल्पवृक्ष की गा के समान है ऐसा सम्यग्दर्शन, शुद्ध हृदय, रत्नत्रय, समस्त प्राणियों पर उत्कृष्ट बया और प्रत्यधिक परोपकार यह सब स्वपर हितकारी प्राचार है ।।११२-११३॥
इस प्रकार अनुपम वचनों के समूह से समस्त प्रश्न राशि का भली भांति उसर देकर जिन पार्श्वनाथ तीर्थकर मे समस्त गणपर और बारह सभाओं को प्राश्चर्यकारी प्रमोद उत्पन्न किया था वे मेरे द्वारा संस्तुत होते हुए मुझे अनुपम पद की प्राप्ति के लिये हों ॥११४॥
१. संचारः खः।