Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 296
________________ • एकविशतितम सर्ग. २८१ .. - - स्वाङ्गोपाङ्गीविकारं च धर्मदूराः कुशनगाः । प्रवाशुक्ति है: 1 विकलासृतौ ॥६७|| मिथ्याहग्नानवृत्तानि श्रेयोऽथं वा घरन्ति ये। जैनमार्गहिता महामिथ्यात्ववासिताः॥८॥ मास्तिकाः पापसूत्राडपा धर्मार्थ सस्वहिंसकाः । तीव्राः कषापिणस्तेषामनन्सा भवपद्धतिः || ये रत्नत्रयभूषाशा जैनमार्गपरायणाः । ध्यानाध्ययनसंसक्ता पोरवीरतपोऽन्विताः ॥१०॥ कायक्लेशपराधीना मुनयः स्युजितेन्द्रियाः । तेषा कमसयाद्यात्संसारक्षय एव ॥१.१॥ ये नमन्ति जिनाधीमान्मुनीन्प्रन्यपरिच्युतान् । भक्त्या धर्मवतो जनश्रुतादींश्च वृषाप्तये ||१.२। सेवा कुर्वन्ति तेषां च सर्वेषां गुणरञ्जिताः । उच्पर्गोत्रविधेदंशा उपचर्गोत्रं धयन्ति ते ।।१०।। जिनेन्द्रयसिशास्त्राणां नमस्कारं न कुर्वते । सेवां च विनयं भक्ति येऽपमा गणिताशयाः॥१.४| नीचदेवरता नीथगुरुधर्मारिसेवकाः । मोचगोत्रवशानीचगोत्रं तेषां च जायते ।।१०।। कारणानि बुभा दर्शनविसुद्धपादि षोडश । त्रिशुद्धधा हविभूषा ये माश्यन्ति निरन्तरम् १०६ धिकार पूर्स चेष्टा करते हैं, धर्म से दूर रहते हैं और कुमार्ग में गमन करते हैं वे पापी जीव संसार में विकल अङ्गों को प्राप्त होते हैं ।।६६-६७॥ जो मनुष्य, कल्याण के लिये मिथ्यावर्शन मिथ्याशान और मिथ्याचारित्र का प्राथ. रण करते हैं, जैनमार्ग से बाहर है, महामिथ्यात्व की वासना से युक्त हैं, नास्तिक है, पापपोषक शास्त्रों से युक्त हैं, धर्म के लिये जीवों की हिंसा करते हैं, और तीन कषाय से युक्त हैं उनकी संसार की पद्धति अनन्त होती है अर्थात् वे अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करते है ॥९५-९६॥ जिनके शरीर रत्नत्रयरूप प्राभूषण से विभूषित है, जो जन मार्ग में तत्पर है, ध्यान और अध्ययन में संलग्न रहते हैं, घोर और वीर तप से सहित हैं, कागक्लेश तप के पराधीन है, तथा इन्द्रियों को जीतने वाले हैं ऐसे मुनियों के कर्मक्षय होने से संसार का भय ही होता है अर्थात वे नियम से मोक्षगामी होते हैं ।।१००-१०१॥जो मनुष्य धर्म की प्राप्ति के लिये जिनेन्द्र भगवान, निर्गन्य मुनि, धर्मात्मा जीव तथा जनशास्त्र पादि को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, और गुरणों में अनुरक्त होकर उनकी सेवा करते है वे पतुर मनुष्य उच्चगोत्र कर्म के उदय से उच्चगोत्र को प्राप्त होते हैं ॥१०२-१०३।। जो नीच पुरुष अहंकार से युक्त होकर देव गुरु और शास्त्रों को नमस्कार नहीं करते हैं, उनकी सेवा, विनय और भक्ति नहीं करते हैं किन्तु इसके विपरीत नीच देवों में लीन रहते है और नीच गुरु तथा नीच धर्मादि को सेवा करते हैं उन्हें नीचगोत्र कर्म के उदय से नीचगोत्र नीच कुल प्राप्त होता है ।।१०४-१०५॥ सम्यग्दर्शनरूपी प्राभूषण से विभूषित ओ जानी जीव निरन्तर मन बचन काय को शुद्धि पूर्वक दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह कारणों की भावना करते है, वे यहाँ अनन्त

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