Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 303
________________ २९० ] * श्री पाश्वनाथ परित - तीर्थेश तब क्वान्नं प्रक्षरद्वचनामृतम् । जगतो प्रीएक प्रामादर्भस्येव निधानकम् ।।४।। मोहान्धकूपसंपातादुद्धतुं वं ममोजङ्गनाम् । निःकारणजगदन्धुस्वं देव विश्वनायकः ।।४१६॥ अजानध्वान्तहन्ता स्वं केवलावगाशुभिः । लोकालोकाखिलार्थानां दीपस्त्वं द्योतको जिन ।४२ तव भामण्डलं नाथ हन्ति बाह्य तमो नृणाम् । अन्तरङ्ग'च दिव्यध्वनि : सर्वाप्रकाशक: ।।४।। तव नेत्रोत्पलेऽतीवसौम्ये दिव्ये गतभ्रमे । प्रताम् वदतः पुसा कोपारिविजयं प्रभो ॥४४॥ जितेन्दुबिम्बमत्यन्तसुन्दर ते मुखाम्बुजम् । प्रात्यन्तिकी मन:शुद्धि ते विकारतर्जनात् ।।५।। मेरोर्यथाचलो नान्यो महान् कल्पनुमाद् दुमः । मरिणश्चिन्तामणेषमंचाङ्गिरक्षणसः क्यचित् । ४६ तथा न त्रिजगन्नाथ त्वत्तो देवोऽशरोऽदभतः । जातु नास्ति न भूतो न भविष्यति जगत्त्रये ।।१७।। मतस्त्वा स्वमदेडे नाम्नाष्टोत्तरशतेन हि । प्रष्टाधिकसहस्रण माम्ना देव विभूषितः ॥5॥ श्रीमानिन्धराट् स्वामी गणेशो विश्वनायकः । स्वयंभूषभो भर्ता विश्वात्माप्यपुनर्भवः १४६ हे तीर्थराज I जिससे वचनरूप अमृत झर रहा है तथा जो समस्त जगत् को संतुष्ट करने वाला है ऐसा प्रापका मुख कमल धर्म के खजाना के समान सुशोभित हो रहा है ।।.! हे वेद ! पाप मोहरूपी अन्ध कप के पतन से प्राणियों का उद्धार करने के लिये समर्थ है इसलिये पाप जगत् के कारण बन्धु तथा विश्व के नायक हैं ॥४१॥ हे जिन ! प्राप केवलज्ञान रूप किरणों के द्वारा प्रज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाले हैं तथा लोकालोक के समस्त पदार्थों के प्रकाशक होने से दीपरूप हैं ॥४२॥ हे नाथ ! प्रापका भामण्डल मनुष्यों के वाद्य अन्धकार को नष्ट करता है और समस्त प्रयों को प्रकाशित करने वाली दिव्यध्वनि अन्सरङ्ग अन्धकार को नष्ट करती है ॥४३॥ हे प्रभो ! जो अत्यन्त सौम्य हैं, विव्य हैं, भ्रम से रहित हैं तथा सालिमा से शून्य है ऐसे प्रापके नेत्र कमल पुरुषों को बतला रहे हैं कि आपने क्रोधरूपी शत्रु पर विजय प्राप्त कर ली है ।।४४।। जिसने चन्द्र बिम्ब को जीत लिया है, तथा जो प्रत्यन्त सुन्दर है ऐसा पापका मुख कमल विकार रहित होने से मन की प्रात्यन्तिक शुद्धि को कह रहा है ॥४५॥ जिस प्रकार मेक से बढ़कर अन्य पर्वत बड़ा नहीं है, कल्पवृक्ष से बढ़कर दूसरा महान वृक्ष नहीं है, और चिन्तामणि से महकर दूसरा महान मरिण नहीं हैं और जीव रक्षा से बढ़कर कहीं दूसरा धर्म नहीं है उसी प्रकार हे त्रिजगन्नाथ ! प्राप से बढकर दूसरा प्राश्चर्यकारी देव तीनों जगत् में न कभी है न कभी हमा है और न कभी होगा ॥४६-४७॥ इसलिये एक सौ पाठ नामों के द्वारा स्वकीय हर्षपूर्वक प्रापकी स्तुति करता है। वैसे हे देव ! प्राय एक हजार माठ नामों से विभूषित है ।।४।। हे भगवन् ! पाप अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरङ्ग और प्रष्ट प्रातिहार्य बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित हैं इसलिये श्रीमान हैं १. प्राप अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह से रहित दिगम्बर मुमा१. निर्गन्यो विश्वनायक: ग.

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