Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 300
________________ • द्वाविंशतितम सगं . [ २८७ स्यवस्था बाह्यान्सर प्रन्धं भव्या मुक्त्याप्तये द्रुतम् । जगृहुः परमां दीक्षा मुक्तिनारीवशीक राम् ।।१०।। काश्चिद् भर्ना सहादाय महादेव्यः परं तपः । सतीत्वब्रतमापना बभूवू रागदूरगाः ।।११।। केचिच्च पशवो मां श्रुत्वा तत्त्वार्थमञ्जसा । प्राणुव्रतानि सर्वाणि सकलना मुदाददुः ।।१२।। केचिदेवा नरस्तियंञ्चः काश्चिच्च सुराङ्गनाः । सम्यक्त्वभूषणं चक्रुई दयं मशिनिर्मलम् ।।१३।। केचिच्च भावनां चकः श्रुत्वा तद्ध्वनिमजसा । दानपूजावतादो हि शक्तिहीनास्तदाप्तये ।।१४।। अप ज्योतिष्कदेवोऽसो पोत्या तद्वचनामृतम् । मिथ्यावरविषं सर्व हत्वानन्तभवोद्भवम् ।।१५।। प्रणम्य श्रीजगन्नाथं जग्राह शाशनिर्मलम् । सम्यक्त्वं परमं बीजं मुक्ते: शङ्कादिजितम् ।१६।। दृष्ट्वाशु तद्विभूति च श्रुत्वा तध्वनिमूजितम् । प्रयुद्धहृदयोझ त्यो त्यक्त्वा मिथ्यात्वमजसा ।१७। त्रि:परीस्य जिनाधीशं नत्वा तत्क्रमपङ्कजी । भक्त्या स्वकाललब्ध्या तापसास्तवनवासिन: १८॥ स्वतपःश्रममत्यर्थ व्यर्थ बुद्ध्वाददुद्रुतम् । जिनदीक्षा मुदा सप्तशतसंख्या: स्वमुक्तये ।।१६।। -- - -- ..--.-.-. ..- ..... ....-... बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर मुक्ति प्राप्त करने के लिये शीघ्र ही मुक्तिरूपी नारी को वश करने वाली उत्कृष्ट दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१-१०॥ कितनो ही रानियां पति के साथ परम तप को अङ्गीकृत कर पातिव्रत्य व्रत को प्राप्त होती हुई राग से दूर हो गयी अर्थात अपने पति के साथ उन्होंने भी प्रायिका की वीक्षा ले ली ॥११॥ कितने ही तिर्यञ्चों और मनुष्यों ने वास्तविक तस्वार्थ को सुनकर अपनी स्त्रियों के साथ हर्षपूर्वक समस्त प्रणुव्रत पहरण किये ॥१२॥ कितने ही देव, मनुष्प, तिर्यञ्च, तथा कितनी ही देवाङ्गनामों ने चन्द्रमा के समान निर्मल हृदय को सम्यक्त्वरूपी प्राभूषण से अलंकृत किया ।।१३।। वान पूजा प्रतादि की शक्ति से रहित कितने ही मनुष्यों ने इन सब की प्राप्ति के लिये भलो भांति दिव्यध्वनि सुनकर उनकी भावना की ।।१४।। प्रथानन्तर कमठ के जीव उस ज्योतिष्क देव ने भगवान को दिव्यध्वनिरूपी अमृत को पोकर अनन्त भव से उत्पन्न मिथ्या वररूपी समस्त विष को नष्ट कर दिया तथा जगत के स्वामी श्री पार्श्व जिनेन्द्र को नमस्कार कर चन्द्रमा के समाम निर्मल, सङ्कादि दोषों से रहित मुक्ति के उत्कृष्ट बीज स्वरूप सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया ॥१५-१६॥ शीघ्र ही भगवान को विभूति को देखकर तथा उनकी शक्तिशाली विध्यध्वनि को सुनकर उसका हृदय प्रबुद्ध हो गया जिससे मिथ्यात्व का उसने भली भांति परित्याग कर दिया ॥१७॥ जिनेन्द्र भगवान् को तीन प्रदक्षिणाएं दी तथा उनके चरण कमलों को प्रणाम किया। उस वन में रहने वाले सात सौ सापसियों ने भी स्वकीय काललन्धि से अपने तप के प्रत्यधिक श्रम को व्यर्थ समझ कर अपनी मुक्ति के लिये भक्ति और हर्षपूर्वक शोघ्र हो जिन

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