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* एकविंशतितम सर्ग
[ २८१ धर्मशीला: सदाचारा जिन पूजापरायणाः । पात्रदानरता नित्यं प्रतशीलादिमण्डिताः ।।७।। संतोषकारिणो येऽत्र निजितेन्द्रियचेतसः । भौगोपभोगसंपूर्णाः स्यु: पुण्यारसुगताच ते ॥७॥ व्रतशीलक्ष्याहीना दानपूजापराड मुखाः । मिथ्यात्ववासिता मूढा: समस्तेन्द्रियलम्पटाः ।७। दुराधारा वृषातीताः . पापध्यानपराश्च ये। तेऽघपाकेन जायन्से दीना भोगादिवजिताः ।७।। धर्मवन्तो दयायुक्ता महाणुव्रतपालका: । तप:शीलगुणाढपाश्च हग्ज्ञानवृत्तधारिणः ।।८।। जिनभक्ताः सदाचारा दाना भावनान्विताः । ये ते सातोदयात्सन्ति महाशर्माधिमध्यगाः॥१॥ परपीडाकरा धर्मवतदानाचिजिताः । नि:शीला व्यसनासक्ता महारम्भादिकारिणः ।८२ मिथ्याज्ञानकुबेवादिभक्ताश्चेन्द्रियलोलुपाः ।ये ते दुःखाग्धिमम्नाङ्गा भवन्स्यसातपाकत: ।।३। देवशास्त्रगुरूणां ये ह्याजाविनयशालिनः । शुद्धाशयाः सदाचाराः सिद्धान्तपठनोधताः || मायाचाराविहीनाच धार्मिका गुणरागिणः । तेऽतिमेधाविनो ज्ञानावृत्यभावाद्भवन्ति वे 18| जिनागमयतीनां सद्धर्मादेमिणां च ये। निन्दा कुर्वन्ति शंसां च पापिनां निविवेकिनः ।६।
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ओ पुरुष इस भव में धर्मशील, सदाचारी, जिन पूजा में तत्पर, पात्रदान में सीन, निरंतर वत शील प्रादि से विभूषित, संतोष करने वाले, तथा इन्द्रिय पोर मन को जीतने वाले होते हैं वे पुण्योदय से उत्तम गति में भोगोपभोग से परिपूर्ण होते हैं ॥७१-७७॥ जो मनुष्य व्रत शील तथा वया से रहित हैं, दान और पूजा से पराङ मुख हैं, मिथ्यात्व की वासना से युक्त हैं, मूह है, समस्त इन्द्रियों के लम्पट हैं, दुराचारी हैं, धर्म से रहित हैं और पाप के ध्यान में तत्पर हैं ये पापोवय से दोन तथा भोगादि से रहित होते हैं ॥७१-७६॥ जो धर्म से सहित हैं, दयायुक्त हैं, महावत और अणुव्रतों का पालन करते हैं, सप शील और गुणों से सहित हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र के धारक हैं, जिनभक्त हैं, सदाचारी हैं, और दान पूजा तथा भावनाओं से सहित हैं वे पुण्योदय से महासुखरूपी सागर के मध्यगामी होते हैं ।।८०-८१॥ जो दूसरों को पीडा करते हैं, धर्म, व्रत तथा वानावि रहित है, निःशील हैं, व्यसनों में प्रासक्त हैं, महान प्रारम्भ प्रादि के करने वाले हैं, मिथ्याज्ञान तथा कुदेवादि के भक्त हैं और इन्द्रियों के लोभी हैं ये प्रसाता वेदनीय के उदय से बुःखरूपो सागर में निमग्न होते हैं ।।८२-१३॥
जो देव शास्त्र और गुरुमों की प्राज्ञा तथा विनय से सुशोभित है, शुबहत्य है, सदाचारी हैं, सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने में उद्यत रहते हैं, मायाचारावि रहित है, धर्मात्मा है तथा गुणानुरागी हैं वे ज्ञानाधरण के प्रभाव से प्रत्यंत बुद्धिमान होते हैं ।।८४-८५॥ जो जिन देव जिन शास्त्र और मुनियों की, समीचीन धर्म प्राधि की तथा धर्मात्मा जीपों की निन्दा करते हैं, और पापी जीवों की प्रशंसा करते हैं, विवेक रहित हैं, पुरुषों को कुबुद्धि