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• श्री पार्श्वनाथ चरित .
विशतितम सर्ग श्रीयन्तं त्रिजगन्नापं केवलज्ञानभूषितम् । अनन्तमहिमाडं भीपार्श्वेशं नमाम्यहम् ॥१॥ प्रय प्रश्नवशा वस्तीर्थनापो अगद्धितः । इत्थं प्रपञ्चयामास तत्त्वादि परया गिरा ॥२॥ पक्रस्य' मुखाब्जे न विकृतिः काप्यभूत्परा । न ताल्योष्ठपरिस्पन्दो न खेदश्च प्रभावत: ॥३॥ महाम् गिरिगुहोद्भूतप्रतिभवनिनिभः । निरगाह्रीगुरोस्याद्भवनियक्ताक्षरोऽघहृव ।।४।। विवक्षामन्तरेणास्य विविक्ता भारती व्यभूत् । अहो महीयसां शक्तिरीहशी योगसंभवा ॥५॥ शृणु तत्वं गणाधीश साद' द्वादशभिगरणैः । तत्वादीनि प्रवध्येऽहं स्वैचित्र्तन सम्प्रसि ॥१|| मीवादिसत्पदाना यापात्म्यं तस्वमिष्यते । सम्यग् जैनागमे तत्त्वं विद्धि नान्यकुशासने ॥७।। जीवाजीवासवा बन्ध: संवरो निर्जरा शिवः । इत्युक्तानि जिनाधीशः सप्त तत्वानि चागमे ॥८॥
विंशतितम सर्ग श्रीमान्, तीन लोक के नाथ, केवलशान से विभूषित और प्रमन्त महिमा से पुक्त श्री पार्श्वनाथ भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥
प्रधानन्तर प्रश्नवश, जगदहितकारी तीर्थकर देव उत्कृष्ट वाणी के द्वारा तस्वादि का इस प्रकार विस्तार करने लगे ।।२।। व्याख्यान करने वाले इन भगवान के मुख कमल पर कोई भी अन्य विकृति उत्पन्न नहीं हुई थी, न तालु ओंठ आदि अवयवों का हलमचलन होता था और न कोई खेद ही उत्पन्न हुमा था। यह उनका प्रभाव ही था ॥ ३ ॥ जो पर्वत की गुहा में उत्पन्न झिरने के शब्द के समान थी, स्पष्ट प्रक्षरों से मुक्त थी तथा पापों का नाश करने वाली थी ऐसी महान दिव्यध्वनि श्रीगुरु के मुख से निकल रही थी ॥४॥ भगवान की वह पवित्र वाणी इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी सो ठीक हो है क्योंकि महापुरुषों को योग से उत्पन्न ऐसी प्राश्चर्यजनक शक्ति होती ही है ॥ ५ ॥ उन्होंने कहा कि हे गणाधीश ! तुम बारह गणों के साथ एकाग्रचित से इस समय सत्व फो सुनो मैं तस्व प्रादि को कहता हूँ ॥६॥
__जीवादि समीचीन पदार्थों का जो यथार्थ रूप है वही तत्त्व कहलाता है। समीचीन तस्व को तुम जैनागम में समझो अग्य मिथ्या शास्त्रों में इसका वर्णन नहीं है।॥७॥ जीव मजीव मात्रय बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष मात तत्त्व प्रगम में जिनेन्द्र भम१. पक्तु रम्प मुखाम्मे न खप