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थी पावनाय परित. कल्पशालिनदीकामधेनुनिध्यादयः पराः । सुचिन्तामणय: स्युः केवलं परोपकारिणः ।।६।। त्वं देव जगतां स्वस्य प्रोपकारी स्वचेष्टया । परयात्र भवे नूनमतः को भवता समः ।।९।। भतो नाथ कृपां कृत्वा संशय ध्वान्तमञ्जसा । दिष्यवाक्यांशुभिः शीघ्र हरत्वन्त: सता भुवि ।।१६
मालिनी इति कृतपरिसुप्रश्नोऽप्यमन्दाङ्गहर्षो, विहितनुसुरकार्यों ज्ञानविज्ञानदक्षः । परमगुरष समृवस्तत्पदानी प्रणम्य, निखिलमुनिगणेशो स्याश्रितः स्वस्य कोष्ठम् ।।१०।।
शार्दूलविक्रीडितम् धर्मादेष' जिनो नदेव
धर्मादाप जगत्त्रयाधिपनुतं ज्ञान परं केवलम् । धादिण्यविभूतिसारकलित तोर्थङ्करस्यास्पद
मत्वेतोह नरा: प्रयत्न मनसा धर्म कुरुध्वं सदा ।।१०१॥
पदापं पुरुषों का उपकारक नहीं है उसी प्रकार हे देव ! प्रापके धर्मोपदेश के बिना अन्य पदार्थ कहीं पुरुषों का उपकारक नहीं है ।। ६६ ।। कल्पवृक्ष, नदी, कामधेनु, निधि तथा चिन्तामरिण आदि उत्कृष्ट पदार्थ केवल पर का उपकार करने वाले हैं परन्तु हे देव ! प्राप अपनी उत्कृष्ट चेष्टा से निश्चित ही अगत् के तथा अपने प्रापके अत्यन्त उपकारी हैं प्रतः प्रापके समान कौन हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।६७-६८।। इसलिये हे नाथ ! वया कर दिव्यध्वनिरूपी किरणों के द्वारा पृथिवी पर सत्पुरुषों के अन्तःकरण में विद्यमान संशयरूपी अन्धकार को शोघ्र ही भलीभांति नष्ट करो ॥६६। इस प्रकार जिन्होंने अच्छे अच्छे प्रश्न किये थे, जिनके शरीर में बहुतभारी हर्ष व्याप्त हो रहा था, जिन्होंने वेव और मनुष्यों का कार्य किया था, जो ज्ञान और विज्ञान में दक्ष थे, तथा उस्कृष्ट गुणों से समृद्ध थे ऐसे समस्त मुनि समूह के स्वामी स्वयंभू गणधर पार्वजिनेन्द्र के चरण कमलों को प्रणाम कर अपने कोठे में विराजमान हो गये ॥१०॥
- यह पार्श्वजिनेन्द्र, धर्म से मनुष्य और देवगति सम्बन्धी सुख का प्रतिदिन उपभोग कर तीन जगत के स्वामियों के द्वारा स्तुत उस्कृष्ट केवलज्ञान को प्राप्त हुए थे तथा धर्म से ही समस्त श्रेष्ठविभूतियों से युक्त तीर्थकर पद को प्राप्त हुए थे ऐसा मानकर हे भव्यजन
। जनो स.।