Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 280
________________ •विशतितम सर्ग. भूकायाद्रिविमानादयः स्थूमस्थूलपुद्गलाः । षड्भेदा इति तीपेशैः पुद्गला हि निरूपिता:।। शब्दो बन्धस्तथा सूक्ष्मः स्यूल: संस्थानसंज्ञकः । भेदस्तमस्तथा छाया उद्योत पातपादयः ॥२५॥ एते पुद्गलपर्याण विभावाख्या मता बिनैः । स्वाभाविकाच पर्याया प्रणुरूपाः पृथक पृथकाम। सरीरवाइ मनःप्राणापानदुःखसुखादिकान् ।कुर्वन्ति पुद्गला जीवाना मृत्युजीवितादिकान् १८७४ बीवपुद्गलयोः साह्यकर्ता जनमतो गतौ । अमूर्तो नि:क्रियो धर्मो मत्स्यानां च यथा जसम्।। महकारी मतोऽधर्मः स्थिती पुगलजीक्योः । प्रमूतों नि:क्रियो नित्यो यथा छायाध्वगामिनामा लोकालोकवि भेदेन द्विधाकाशोऽस्त्यभूतिमान् । अवकाशप्रदः सर्वद्रव्याण नि:त्रियोऽव्ययः ।।१०।। पदार्था यत्र लोक्यन्ते लोकाकाशो मतो हि सः । तस्माद्वहिरनन्तोऽप्यलोकाकाशोऽस्ति केवलः ।।१। धर्माधर्मकजीवानां लोकाकाशस्य संचिताः । असंख्याताः प्रदेशा हि पुद्गलानामनेकधा ||२|| जाते हैं, और पृथियोकाय पर्वत तथा विमान प्रावि स्थूल स्थूल पुद्गल कहलाते है प्रति जो पृथक करने पर समुदाय से पृथक हो जावे परन्तु मिलाने पर पुनः एक हो जाते हैं ऐसे जल घृत प्रावि स्थूल हैं तथा पलग करने पर जो अलग हो जावें और मिलाने पर एक न हों, अलग हो रहें वे पृथिवी परथर प्रादि पदार्थ स्थूल स्थूल कहलाते हैं। इस प्रकार तीर्थ कर भगवान ने छह भेद वाले पुद्गलों का निरूपण किया है ।।८१-८४॥ शम्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान-प्राकृति, भेद, सम, थाया, उद्योत और प्रातप प्रादि ये पुदगल द्रव्य के पर्याय हैं। जिनेन्द्र भगवान् ने इन सबको पुद्गल दृश्य की विभाव पर्याय माना है तथा अलग अलग अणुरूप जो पर्याय है उसे स्वाभाविक पर्याय स्वीकृत किया है ॥८५-८६॥ पुद्गलव्य जीवों के शरीर पचन, मम, श्वासोच्छ्वास, दुःख सुख, मरण सपा जीवन प्रादि कायों को करते हैं अर्थात् ये जीवों के प्रति पुद्गल दृष्य के उपकार हैं ॥७॥ जिस प्रकार मछलियों के चलने में जल सहायक होता है उसी प्रकार जीव और पुदगलों के चलने में जो सहायक होता है, वह धर्मव्य है । यह धर्मदव्य प्रमूर्तिक तथा निष्क्रिय है ।।८।। जिस प्रकार पथिकों के ठहरने में छाया सहायक होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल के ठहरने में जो सहायक होता है वह प्रधर्मदव्य है । यह अधर्मव्य प्रमूर्तिक सपा निष्क्रिय है ॥८६॥ ओ सब व्यों के लिये अवकाश देने वाला है वह प्राकाश कहलाता है । यह प्राकाश लोक और प्रलोक के भेद से दो प्रकार का है, अभूतिक है, निष्क्रिय है तथा अविनाशी है ।।१०। जिसमें जीव पृद्गल प्रावि पदार्थ देखे जाते हैं वह सोकाकास माना गया है और उसके बाहर का अनन्त प्राकाश प्रलोकाकाश कहलाता है । यह प्रलोकाश मात्र प्रकाश ही रहता है इसमें अन्य वृध्य नहीं रहते ॥६॥ धर्म, अधर्म, एकजीव और लोकाकाश के प्रसंख्यात प्रदेश होते हैं । पुदगल वृष्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं ॥१२॥ जो दम्यो

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