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-एकविंशतितम सर्ग.
। २४ एकच्छत्रांकित राज्यं रुदूर सुन्दर वपुः । वाणी सुधामयी दिव्या पाण्डित्य निर्मलं यशः॥२०॥ इन्द्रत्वं तीर्घनाधरम देवत्वं हृदय शुभम् । निःकषायित्वमस्यन्त मान्यरवं धर्मशीलता ॥२१॥ इत्यादि' लभ्यतेश्यद्वा वस्तुसारं सुधार्मिकः । तस्सवं विद्धि घी मंस्त्वं फलं पुण्यत रोमहत् ।।२२॥ परिकश्चिद में सारं दुराराध्य अगस्त्रये । सर्व करतले तच्चायाति पुण्यात्स्वयं सताम् ।।२३॥ इति विश्वपदार्थान् सनिरूप्याशिलतस्ववित् । हेयोपादेयमित्याह स प्रादेमाप्तयेऽङ्गिनाम् ।।२४।। समस्तासुमता मध्ये पञ्चेव परमेष्ठिनः । जगदा उपादेया धीमतां व्यवहारतः ।।२।। मम्हरारमाथवादेयः प्रागवस्थास्थयोगिनाम् । साक्षाच्च परमात्मा बहिरारमानं विहाय वे ॥२६॥ म्बकीय परमात्मा वा निर्विकल्प नरवाल एवादेयो वीतरागयोगिनाम् ।।२७।। पाप्यजीवतस्वोऽत्र विधारसमये विदे। मादेयोऽपि पुनहयोध्मानकाले मुनीशिनाम् ।।२।। सस्पुण्यात्रवन्धो यमप्यादेयो च रागिणाम् । पापस्यापेक्षया हेयौ तपास्यत्र विरागिणाम् ।।२।। सामान्मुक्रयङ्गनाहेतुः साद निर्जरयापरः । संवरः सर्वथादेयो मोक्षश्यानन्तशर्मदः ॥३०॥
इन्द्रपद, सीर्थकर पर, देवस्व, शुभहवय, अत्यन्त कवाय रहित होना, मान्यता, धर्मशीलता और इन्हें प्राधि लेकर अन्य को भी श्रेष्ठ वस्तु धार्मिक जीवों के द्वारा प्राप्त की जाती है उस मयको हे बुद्धिमान जम हो | तुम पुण्यरूपी वृक्ष का महान फलानो । तीनों जगद में जो कुछ भी दुर्लभ, सारभूत तथा कष्ट से माराधना करने योग्य वस्तु होती है वह सब पुण्य से सत्पुरुषों के हस्ततल पर स्वयं प्रा जाती है ॥१५-२३॥ इस प्रकार समस्त तस्वों के जाता भगवान पाश्वनाथ सब पदार्थों का अच्छी तरह वर्णन कर प्राणियों को पहल योग्य वस्तुओं की प्राप्ति कराने के लिये हेयोपावेय वस्तुओं का निम्न प्रकार वर्णन करने लगे ॥२४॥
___व्यवहारमय से समस्त प्राणियों के बीच जगत्पूज्य पञ्चपरमेष्ठी ही बुद्धिमान पुरुषों के लिये उपादेय हैं ॥२५॥ अथवा पूर्व अवस्था में स्थित मुनियों के लिये बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा और परमात्मा साक्षात् उपादेय हैं । और वीतराग मुनियों के लिये निविकरुप पद को प्राप्त तथा सिद्धों की समानता रखने वाला स्वकीय परमात्मा ही उपाय है ॥२५-२७॥ यद्यपि अजीच तत्व विचार के समय ज्ञान प्राप्त करने के लिये उपादेय भी तथापि ध्यान के समय यह मुनियों के लिये हेय है ॥२८॥ याप रागी मनुष्यों के लिये पाप की अपेक्षा उत्तम पुण्यात्रव और पुण्यबन्ध उपादेय हैं तथापि विरागी मनुष्यों के लिये यहां हम है-छोड़ने के योग्य हैं ।।२६।। निर्जरा के साथ मुक्तिरूपी अङ्गना का साक्षात हेतु स्वरूप उत्कृष्ट संबर और अनन्त सुख को वेने वाला मोक्ष सब प्रकार से उपादेय हैं। 1 मथले ग० २. पसिनप्रापिनाम् ।