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• भी पारवनाप चरित.
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पञ्चषा संयमी च्यानश्रुताभ्यां संयमादयः । भवन्त्यमी सता सर्व भावसंवरकारणाः ।।११२।। निरोषः क्रियते योऽत्र कर्मणा यरनतो बुधैः । स द्रव्यसंवरः प्रोक्तोऽप्यमन्तगुणसागरः ॥११॥ संबरेण स्वयं प्रत्य सनालिङ्गानं मुदा । सतां स्वस्त्रीव मुक्तिश्वीनान्यथा क्लेककोटिमिः।११४ प्राक्तनः कर्मबन्यो यः कालेन तपसायवा ।क्षीयते निर्जरा सा सविपाकेतरतो द्विषा ॥११॥ कर्मपाकम या बाता सा सविपाकासिलात्मनाम् । साध्यत्नजनिता हेया परकर्मनिवन्धना ॥११६॥ संवरेण सम यात्र निचरा कियते बुधः । तपोभिः साऽविपाका प्रादेयाने कसुखाकरा ।।११।। निर्जरा कर्मणामत्र बायतेऽपि यथा पपा । मायाति मिकट मुक्तिस्तरकारिणी तथा तथा ।११ पात्यन्तं योऽत्र विश्लेषः कर्मास्मनोः सुयोगिनाम् । काललच्या स मोमः स्याद् द्रव्यभावाद दिषात्मकः। भयहेतुर्वरो यः परिणामोऽखिलकर्मणाम् ।भावमोक्षः स विज्ञेयः कर्ममोपनहेतुकृत् ॥१२०॥ समस्तकमदेहायवेवास्मा जायते पृथक् । तदेव द्रव्यमोक्ष: स्यादनन्तगुणदायकः ।।१२१॥ बारह अनुप्रेक्षाएं, समस्त परिषह जय, और पांच प्रकार का संयम, इस प्रकार ध्यान प्रौर श्रुताध्ययन के साथ जो संयमादिक हैं वे सभी सत्पुरुषों के भाव संवर के कारण है ॥१११-११२॥ इस जगत में ज्ञानीजनों के द्वारा जो कर्मों का निरोध किया जाता है वह बष्य संवर कहा गया है। यह दृश्य संवर भी अनन्त गुरणों का सागर है ।।११३॥ संवर के द्वारा इस जगत में मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं प्राकर अपनी स्त्री के समान हर्षपूर्वक सत्पुरुषों के लिये प्रालिङ्गान वेती है इसके बिना करोड़ों क्लेश उठाने पर भी मुक्ति लक्ष्मी का प्रालिअन प्राप्त नहीं होता ।।११४॥
पूर्व का जो कर्मबन्ध काल पाकर अथवा तप के द्वारा क्षीण होता है वह निर्जरा है। यह मिर्जरा सविपाक और प्रविपाक के भेद से दो प्रकार की है ।।११५।। कर्मोदय से समस्त जीवों के जो निर्जरा होती है वह सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा विना प्रयत्न के ही होती है तथा अन्य कर्मों का कारण है प्रतः हेय है-छोड़ने के योग्य है ।।११६। इस जगत में संबर के साथ विद्वज्जनों के द्वारा तप से जो निर्जरा की जाती है वह प्रविपाक निर्जरा है। यह प्रविपाक निर्जरा अनेक सुखों को खान है तथा ग्रहण करने के योग्य है ॥११७॥ इस लोक में जैसे जैसे को की निर्जरा होती जाती है वैसे वैसे ही मुक्ति, निरा करने वालों के निकट प्राती जाती है ॥११॥
यहां जप्सम मुनियों के काललधि के द्वारा कर्म पोर प्रात्मा का जो प्रत्यन्त पृथग्भाव है यह मोक्ष कहलाता है । वह मोक्ष द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का होता है ।।११।। समस्त कर्मों के क्षय का हेतु रूप जो उस्कृष्ट परिणाम है उसे भाव मोक्ष बामना चाहिये । यह भाव मोक्ष कर्ममुक्ति के कारणों को करने वाला है ।।१२०॥ समस्त कर्मरूप शरीर से जिस समय प्रात्मा पृथक हो जाता है उसी समय अनन्तगुणों को देने