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● श्री पार्श्वनाथ चरित
क्षमादिदशाषमे त्वत्तः प्राप्य तपोधनाः माक्यामृतं पीत्वा जन्ममृत्युजराविषम् केविद्यास्यन्ति निर्वाण चाहमिन्द्रपदं परे
येवां पश्यन्ति धर्माय दृश्या: स्युस्ते जगत्त्रये । त्वामाश्रयन्ति ये नाथ तान् श्रयन्ति जगन्छि यः ॥७६॥ भवद्धर्मोपदेशेन भव्यास्तीर्थेश सम्प्रति | मोहिनी घ्नन्ति मोहारिपापिन पापमात्रवम् ।। ७७ ।। भवदुषोऽशुभिः सन्तोऽज्ञानवान्नसमुत्करम् । स्फेटरान्ति' इसे नं रज्ञानाच्छादकं घनम् ७८ भवसत्वोपदेशेन प्राप्य वैराग्यमञ्जसा । मदनेन समं धनन्ति स्वाक्षारातीन् सुधीषनाः ७६ । बहवो जयन्ति धर्मास्त्रः कषायारीम् सुदुर्जयान् ॥८०॥ । हरन्ति भुवने नाथ ततः स्युः सुखिनो जनाः 11521 । केचिन्नाकं च देवेशं भवती प्रवर्तनात् HERU | जन्माग्निहानये भव्यास्तथा त्वद्वचनामृतम् ॥१८३॥ यत्सस्यानां मेषवर्षणः । तथा स्वमु सि.बीजानां देव त्वद्धमंवृष्टिभिः ॥ ८४ ॥ तो नाथ प्रसीद त्वं कुर्वनुपमजसा । धर्मोपदेशपीयूष: प्रोरणयस्व जगत्त्रयम् HEX)
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ईहन्ते चातका यवत्त्वाकान्ता घनात्पयः निष्पतिर्जायते
आपके दर्शन करते हैं वे तीनों जगत्
आशा का पालन करता है ||७५ || जो धर्म के लिए में दर्शनीय होते हैं । हे नाथ ! जो प्रापका प्राश्रय लेते हैं जगत् की लक्ष्मिय उनका माश्रय लेती है ।। ७६ ।। हे तीर्थपते ! इस समय मोही भव्य जीवों समूह आपके धर्मोवदेश से मोह शत्रुरूपी पापियों को तथा पापरूपी शत्रु को नष्ट करते हैं ।।७७।। सत्पुरुष आपके वचनरूपी किरणों से सम्यग्दर्शन तथा सम्यज्ञान को प्राच्छादित करने वाले marceit सघन अन्धकार के समूह को शीघ्र ही नष्ट करते हैं ॥७८॥ सुबुद्धिरूपी घन को धारण करने वाले भव्य जीव, प्रापके तत्वोपदेश से वास्तविक वैराग्य प्राप्त कर कामदेव के साथ साथ अपने इन्द्रियरूप शत्रुनों को नष्ट करते हैं ।।७९।। कितने ही तपस्वी आपसे क्षमा आदि दश प्रकार के धर्म को प्राप्त कर धर्मरूपी अस्त्रों के द्वारा कषायरूपी सुजंन शत्रुधों को जीतते हैं ।। ८० ।। हे नाथ ! आपके बचनरूपी अमृत को पीकर लोग जन्म मृत्यु और जरारूपी विष को नष्ट करते हैं इसलिए ये इस जगत् में सुखी होते है ||१|| हे भगवान् श्रापके तीर्थ प्रवर्तन से कोई निर्धारण को प्राप्त होंगे, कोई अहमिन्द्र पद को, कोई स्वर्ग को और कोई इन्द्र पद को प्राप्त करेंगे ।। ८२ ।। जिस प्रकार प्यास से युक्त खातक मेघ से जस चाहते है उसी प्रकार भव्यजीव जन्मरूपी श्रग्नि को नष्ट करने के लिए प्रापके अवनरूपी अमृत को चाह रहे हे ।।६३|| जिस प्रकार मेघ वर्षा से धान्यों की निष्पत्ति होती है उसी प्रकार हे देव ! आपकी धर्मवृष्टि से स्वर्ग तथा मोक्ष के बीजों की निष्पत्ति होती है ।। ८४ । इसलिये हे नाथ ! प्रसन्न होश्रो, वास्तविक उपकार करो और धर्मोपदेश रूपी प्रमृत के द्वारा तीनों जगत् को संतुष्ट करो || ८६५ ||
१. नाशयन्ति
२ नीतितमः ग्लोक ० ० त्यांनस्ति ।