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* एकोनविंशतितम सर्ग *
[ २५३ विश्ववहितं वाञ्छन् गुणधर्मोपदेशः । विश्वतस्वादिपृच्छाये तत्स्तव कर्तुं च ।। ६६ ।। स्वं देव जगतां भर्ता एवं त्राता च भवाम्बुधैः । धर्मचक्री त्वमेवात्र धर्मचक्रप्रवर्तनात् ॥६७॥ कर्ता त्वं धर्मतीर्थस्य हन्ता पापानि स्वान्ययोः । ज्ञानतीर्थस्य स्रष्टा त्वं त्वं देव जगतां हितः ॥६६॥ अबन्धूनां परो बन्धुर्भध्यानां त्वं सुतारकः । शरण्यो भवभीतानां कृपालुस्त्वञ्च धर्मराट् ।। ६९ ।। स्वं जगत्त्रितयाधीशस्त्वं ब्रह्मा स्वं चतुर्मुखः । पुरुषोत्तम एव त्वं श्रीपतिस्त्वं विनायकः ॥७०॥ धर्मोपदेशकर्ता स्वं त्वं त्रिलोकपितामहः । त्वमसंख्यसुरैः सेव्यो देहतो विरतोऽसि च २७१॥ ये स्वां नमन्ति भयोवा उच्चगत्रि म । ये प्राचयन्ति देव स्वामयः स्युस्ते भवे भवे ॥७२॥ संस्तुवन्ति ये दक्षा यान्ति ते स्तवनास्पदम् । भक्ति कुर्वन्ति ये भक्त्या सर्वत्र सुखिनश्च ते ॥७३ । स्मरन्ति ये गुणानाथ ते ते स्वार्द्धयः । ये ध्यायन्ति भवन्तं च भवन्ति स्वत्समा हि ते ७४॥ माराधयन्ति ये देव त्वामाराध्याः स्युरेव ते | पालयन्ति तवाज्ञां ये तेषामाशां भजेज्जगत् ।।७।।
मनूत थे, चारज्ञान को आदि लेकर अनेक ऋद्धियों से विभूषित थे, तथा धर्मोपदेश से उत्पन्न गुणों के द्वारा जो समस्त जीवों का हित चाहते थे ऐसे स्वयम्भू नामक गणधर समस्त सत्त्व आदि को पूछने के लिए भगवान् का स्तवन करने हेतु उद्यत हुए ।।६४-६६ ।।
हे बेव ! आप जगत् के भर्ता हैं, संसार समुद्र से रक्षा करने वाले हैं तथा धर्म es के प्रवर्तने से आप ही धर्मचक्री हैं ।। ६७।। प्राप धर्म तीर्थ के कर्ता हैं, निज और पर के पापों का नाश करने वाले हैं, ज्ञान तीर्थ की सृष्टि करने वाले हैं और हे देव ! प्राप जगत् के हितकारी है ।। ६६ ।। प्राप बन्धु रहित जीवों के उत्कृष्ट बन्धु हैं, भव्य जीवों को अच्छी तरह नारने वाले हैं, संसार से भयभीत मनुष्यों के शरण दाता हूँ तथा दयालु धर्मराज है ।। ६६ ।। प्राप तीनों जगत् के स्वामी हैं, श्राप ही ब्रह्मा हैं, श्राप हो चतुरानन हैं, आप ही पुरुषोत्तम नारायण ( पक्ष में श्रेष्ठ पुरुष ) हैं प्राप हो श्रीपति विष्णु (पक्ष में लक्ष्मीपति ) हैं और आप ही विनायक - गणेश ( पक्ष में विशिष्ट नायक ) है ।। ७० । श्राप धर्मोपदेश के कर्ता हैं, प्राप तीन लोक के पितामह हैं, भाप प्रसंख्यात देवों से सेवनीय है लया शरीर से विरत हैं ।। ७१ ।। जो भव्य जीवों के समूह प्रापको नमस्कार करते हैं वे उच्य गोत्र को प्राप्त होते हैं प्रौर हे देव ! जो प्रापकी पूजा करते है वे भव भव में पूज्य होते है ।।७२ || जो समर्थ मनुष्य प्रापकी स्तुति करते है वे स्तुति के स्थान को प्राप्त होते हैं, जो भक्तिपूर्वक आपकी भक्ति करते हैं वे सर्वत्र सुखी रहते है ।।७३|| हे नाथ ! जो प्रापके गुणों का स्मरण करते हैं वे गुणों के सागर होते हैं और जो ग्रापका ध्यान करते हैं ये आपके समान होते है ।। ७४ ।। हे देव ! जो आपको आराधना करते हैं वे प्राराधना करने के योग्य होते हैं और जो आपको प्राज्ञा का पालन करते हैं संसार उनकी