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• श्री पाश्वनाथ चरित. रत्नाभरणमालाभिमुक्ताजालेwभाच्च सा । जित्वा मेरुश्रियं विश्वमङ्गलद्रव्यसंपदा ।।१५।।। तस्या मध्ये स्फुरद्रत्नरश्मिव्याप्तदिगन्तरम् । नानामणिप्रभाकीर्णं तुझं सिंहासनं भवेत् ।। ५५४।। विष्टरं तदलंचक्रे श्रीपार्यस्त्रिजगद्गुरुः । अस्पृशंस्तत्तलं स्वेन महिम्ना चतुरङ्ग लैः ।।१५।।
मालिनी
इति निजमतिशक्त्या शास्त्रदृष्टया समासात् समवसरण दिज्य कीर्तितं यस्य किञ्चित् । त्रिभुवनपतिभर्तु यच्च तत्को नृ शक्तो गदितुमखिलमेवान्यो गणेशारस नोऽग्यात् ।।१५६ ।
शार्दूलविक्रीरितम् कि मानुः किमु राशिरेव यशसा कि वा सुतेजोनिधिः
कि वा विश्वकरो जगत्त्रयगुरु: किं वा परब्रह्मराट् । कि पुण्याणुचयः स्थितः सदसि यः किं धर्मराजो महा
नित्यन्तःप्रवितरणः सुरवरदृष्ट: स नोऽस्तु धिये ।।१५७॥
तथा सुगन्धित घुप के धुएं से समस्त विशात्रों के समूह को सुगन्धित करने वाली वह गन्ध कुटी सार्थक मामको धारण करती हुई खुशोभित हो रही थी। गरिमनस यामवरणों की पंक्तियों, मोतियों के समूहों तथा समस्त मङ्गल द्रव्य रूपो संपदा से वह गम्धकुटी मेर पर्वत की लक्ष्मी को जीत कर प्रत्यधिक सुशोभित हो रही थी ।।१५३॥ उस गन्धकुटी के मध्य में देदीप्यमान रत्नों की किरणों से दिशात्रों के अन्तराल को व्याप्त करने वाला तथा नाना मरिणयों को प्रभा से युक्त 'चा सिंहासन था ॥१५४।। तीन जगत् के गुरु श्री पाश्र्वनाथ भगवान अपनी महिमा के द्वारा चार अंगुल की दूरी से उसके तलभाग का स्पर्श न करते हुए उस सिंहासन के अलंकृत कर रहे थे ।।१५५।।
इस प्रकार अपनी बुद्धि को सामर्थ्य तथा शास्त्रावलोकन से त्रिजगत्पति पावं जिनेन्द्र के जिस समवसरण का किञ्चित् वर्णन हुअा है उसका संपूर्ण रूप से वर्णन करने के लिये गणधर के अतिरिक्त दूसरा कोन पुरुष समर्थ हो सकता है ? अर्थात कोई नहीं। वे पाश्वनाथ भगवान मेरी रक्षा करें ॥१५६॥ क्या यह सूर्य है, या यश की प्रशस्त राशि है ? क्या उसम सेज की निधि है ? अथवा सबको करने वाले तीन जगत् के स्वामी परम ब्रह्मराम हैं ? क्या पुण्य परमाणुनों का समूह है ? प्रथया सभा में स्थित महान धर्मराज हैं इस प्रकार हृदय में तर्करा करने वाले इन्द्रों ने जिन्हें देखा था वे पार्श्वनाथ भगवान् हम लोगों की लक्ष्मी के लिये हों ।।१५७१।