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. एकोनविंशतितम सर्ग .
[ २४७ जितज्योत्स्नान्धि फेनाद्येश्चतुःषष्टिसुचामरैः । हंसच्छदनि भैदिव्यर्यक्षदेवक गस्तैिः वौज्यमानो जिनेन्द्रोऽसौ भाति सिंहासने स्थितः । मुक्तिकान्ताकटाक्षेवा 'लक्ष्यो कृतवरोत्तमः ।।१०।। सातादशकोटोनां यादिवाणां समुच्चयः । योऽसौ दुन्दुभिशब्दोऽयं निजितानिघनस्वनः ११११॥ पापूर्य दिग्धराकाशं ताडितोऽमरपारिभिः । करोति विविधान्नादान्परहादिमवान्परान् ।।१२।। निजिताखिलदीप्त्योधमिनेन्दुमरिणज्योतिषाम् । म्यानविश्वसभास्थान भानुकोटयधिकप्रभम् ।।१।। नेत्रशर्मकरं रम्यं देहभामण्डलं परम् । गजते श्रीजिनाङ्गस्य से जःपुअमियोच्छिनम् ॥११॥ जगतां संनिराकुन्मियामोहतमोऽखिलम् । महास्वनिविभोदिव्यो विश्वसत्वार्थव्यक्तकृत् ॥१५॥ जलौघोऽत्र ययकोऽपि विचित्रो जायते वने । भूमियोगातथा भर्तु ननिभाषात्मको ध्वनिः ।।१६। अनक्षरोऽपि सर्वेषां पशुम्लेच्छार्यदेहिनाम् । सर्वभाषामयळक्ताक्षरस्तस्वादिसूचक: ॥१७॥ इस्यसाधारणदिव्यनिरोपम्यः सुरोद्भवैः । महाष्टप्रातिहाविभ्राजते वा स धर्मराट् ।।१८ । के कारण वशम द्वार से बाहर निकले हए शुक्लध्यान के शिखा समूह के समान जान पड़ता था ऐसा छत्रत्रय भगवान् के मस्तक पर सुशोभित हो रहा था ॥७-८।। जिन्होंने चांदनी तथा समुद्रफेन प्रावि को जीत लिया है, जो हंस के पंखों के समान हैं, सुन्दर हैं तथा यक्ष जातीय देवों के हाथों में स्थित हैं ऐसे चौसठ चामरों से बीज्यमान, सिंहासनासीन थे जिनेन्द्र भगवान ऐसे प्रतीत होते थे मानों मुक्तिरूपी स्त्री के कटाक्षों से अवलोकित उत्सम दूल्हा ही हो ॥६-१०। जिसमें साढे बारह करोड़ बाजों का स्वर मिला हुआ था तथा जिसने समुद्र के जोरदार शब्द को जीत लिया था ऐसा देव हस्तों से ताडित दुन्दुभियों का शब्द, दिशा पर्वत और भाकाश को व्याप्त कर पटह प्रादि पे होने वाले नाना प्रकार के श्रेष्ठ शब्दों को कर रहा था ।।११-१२॥ जिसने सूर्य चन्द्र मरिण तथा नक्षत्रों को समस्त कान्ति के समूह को जीत लिया था, जिसने समस्त सभामण्डप को व्याप्त कर लिया था, जिसको प्रभा करोड़ों सूर्य से भी अधिक थी, जो नेत्रों को सुख उत्पन्न करने वाला था, और रमरणीय था ऐसा उत्कृष्ट भामण्डल इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानों श्री जिनेन्द्र भगवान के शरीर का सेजापुञ्ज हो ऊपर को प्रोर उठ खड़ा हो ।।१३-१४॥ समस्त तरों के प्रर्थ को व्यक्त करने वाली भगवान् की महान् दिव्यध्वनि जगत के सम्पूर्ण मिथ्या मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर रही थी । जिस प्रकार इस संसार में एक ही जल का प्रवाह वन में पृथिवी के योग से नानारूप हो जाता है उसी प्रकार भगवान् को दिव्यध्यति भी पात्र के योग से नानाभावारूप हो गई थी। यपि वह विव्यध्वनि प्रनक्षरात्मक थी तथापि समस्त पशु म्लेच्छ और प्रार्य मनुष्यों के लिये सर्वभाषारूप स्पष्ट अक्षरों के द्वारा तत्व आदि को १. लक्ष्मीकत करोत्तम ख. २ सूर्यकान्त चन्द्रकान्समविकिरण नाम् ३ सभास्थाने ग्व० गल् प० ।