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अष्टादश सर्ग
२४३ तद् समूभिमध्ये वभावाचा पीठिका परा ।वैडूर्यरत्ननिर्माणा प्रोत्तु ङ्गा मणिरश्मिभिः ।।१४३॥ तस्यां पोग्णसोपानमार्गाः स्युः षोडशान्तराः । चतुदिक्षु सभाकोष्ठप्रवेशेषु च निर्मलाः ।।१४४॥ पीठिका तामलंचक्र रष्टमङ्गलसंपदः ।धमंचकारिण वोढानि दीप्तानि यक्षमूर्धभिः ॥१४॥ सहस्रारः स्फुरद्दीप्तं रेजिरे तानि सन्ततम् । उद्यतानीव भव्यानां धयाँ प्रोक्तुशुमा गिरम्।१५६॥ तस्योपरि महापीलीयममा भन्न विश्व हिरमयं तुम स्पर्द्धमानमिव रवेः ।।१४७।। चक्रेभवृषभाम्भोआशुकसिंहगरुन्मताम् । माल्यस्येति ध्वजा रेजुस्तस्योपरि तले पराः ॥१४|| सर्वरत्नमयं पीठं तस्योपर्यभवत्पृथु । तृतीयं विस्फुरद्रत्नरोचियस्ततमश्चयम् ॥१४॥ विमेखलमिद पीठं परार्थ रत्ननिर्मितम् । जगत्साराकरं वाभारित्रजगत्सारवस्तुभिः ॥१५०।। तत्र गन्धकुटी पृथ्वी विश्वलक्षम्याकरा परा । रैराड निवेशयामास दिव्यगन्धमया परा ॥१५॥ बिभ्रती सार्थक नाम सा बभौ पुष्पदामभिः । सुगन्धधूपघूमंपच सुगन्धीकृतदिक्चया ॥१५२॥ प्रत्यक्ष ही मनुष्य और देवों के द्वारा तीन लोक की लक्ष्मी का स्वीकृत करते पे इसकारण यह श्रीमण्डप कहलाता था ॥१४२।।
उस श्रीमण्डप से रुकी हुई भूमि के मध्य में बैडूर्य मरिणयों से निर्मित तथा मरिणयों को कान्ति से अत्यन्त ऊंची पहली उत्कृष्ट पीठिका है ॥१४३॥ उस पीठिका को चारों दिशाओं में सभागृहों में प्रवेश करने के लिये निर्मल सोलह सोलह सौडिया है और सोलह ही अन्तर हैं ॥१४४॥ अष्ट मङ्गल द्रव्य तथा यक्षों के मस्तक द्वारा धारण किये हुए देवीप्यमान धर्मचक्र उस पीठिका को अलंकृत कर रहे हैं ॥१४५।। देदीप्यमान हजार प्रारों से वे धर्मचक ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों भव्य जीवों को निरन्तर धर्मयुक्त शुभ वाणी सुनाने के लिये उधत ही हों ।।१४६॥ उस प्रथम पीठ के ऊपर द्वितीय महापीठ था को शुभ था, सुन्दर था, सुवर्णमय था, ऊंचा था और सूर्य से स्पर्धा करता हुम्रा सा जान पड़ता था ।।१४७।। उसके ऊपर चक्र, हाथी, वृषभ, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड और माला के चिह्नों से सहित उत्कृष्ट ध्वजाए सुशोभित हो रही थीं ।।१४८।। उस द्वितीय पीठ के ऊपर सर्वरत्नमय तृतीय विस्तृत पीठ था, जो देवाप्यमान रत्नों की किरणों से अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला था ।।१४६।। तीन मेखलाओं वाला यह पीठ श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित था और तीन जगत की सारभूत वस्तुओं से ऐसा जान पड़ता था मानों तीन जगत् को श्रेष्ठ वस्तुओं का प्राकर-खान ही हो ॥१५॥
उस तृतीय पीठ पर विशाल गन्धकुटी थी, जो समस्त लक्ष्मी की खानस्वरूप यो, दिव्यगन्ध से युक्त थी और धनपति-कुबेर ने जिसकी रचना कराई थी ।१५१। पुष्पमालाओं
। कुबेरः ।