Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 252
________________ ! * अष्टादश सगं [ २३९ महावीथ्युभयान्तयोः ॥ १०३॥ पीठस्योपरि चैतेषां प्रतिमा दिश्चतुष्टये क्षीरोद सलिलार्थ स्ता अष्टभेवैर्महार्चनः अत्रापि पूर्ववज्ज्ञेयं नाटयशालाद्वयं परम् । तद्वक्षूपघटद्वन्द्व ततो वीध्यन्तरेषु स्याद्वनं करूपमहीरुहाम् । नानारत्नप्र मौधर्भास्वरं वा भोगभूतलम् ।। १०४।। तंत्र कल्पद्र ुमास्तुङ्गाः सच्च्छायाफलशालिनः । नाना सग्वस्त्रभूषाद्य शोभन्तेऽतिमनोहराः ११०५। नेपथ्यानि फलान्येषां स्युरंशुकानि पल्लवाः । मालाः शाखावलम्बिन्यो दृढप्रारोहयष्टयः ।। १०६ ।। ज्योतिरङ्गेषु ज्योतिष्का दीपाङ्गषु च नाकिनः । भावनेन्द्राः स्रग षु यथायोग्यं दधुर्धृतिम् ।। १०७ ॥ प्रशोक सप्तपर्णाख्यचम्पकाश्राभिषा इमे । 'सिद्धार्थपादपा ज्ञेया: सिद्धार्थाधिष्ठिताः पराः १०८ चतुर्गोपुर संबद्ध शालत्रितय वेष्टिताः । छत्रचामरभृङ्गा रकलशार्थ : प्रशोभिताः ॥ १०६॥ । दीप्राङ्गा मरिण निर्माणा जिनेन्द्राणां विरेजिरे। ११० । | प्रर्चयन्ति सुरेन्द्राद्याः प्रणमन्ति स्तुवन्ति च ।। १११। ततो बभूव पर्यन्ते बनानां वनवेदिका । चतुभिर्गोपुरैस्तुङ्गः स्पृशन्तीय नभोऽङ्गणम् । । ११२/ घण्टाजालानि लम्बानि मुक्तालम्बानि कानि च । पुष्पदामानि संरेजुरमुष्यां गोपुरं प्रति ।।११३।। गली के दोनों ओर दो वो उस नाव्यताएं और घटों का सल पहले के समान जानना चाहिये ।। १०३ ॥ तदनन्तर वीथियों के मध्य में कल्पवृक्षों का वन था जो माना रत्नों की कान्ति के समूह से देदीप्यमान होता हुआ भोगभूमि के भूजल के समान सुशोभित हो रहा था ।। १०४ ।। उस वन में उत्तम छाया श्रोर फलों से सुशोभित ऊंचे ऊंचे कल्पवृक्ष ये जो अत्यन्त मनोहर थे तथा नाना मालानों वस्त्रों और प्राभूषण प्रावि से सुशोभित हो रहे थे ।। १०५ ॥ श्राभूषण, इन वृक्षों के फल थे, वस्त्र, पल्लव थे और शाखाओं पर लटकने बाली मालाएं, दृढ अङ्क र यष्टियां थीं ॥ १०६ ॥ ज्योतिषी देव, ज्योतिरङ्गकल्प वृक्षों पर, देव, दोपाङ्ग वृक्षों पर और भावनेन्द्र मालाङ्ग वृक्षों पर संतोष धारण करते थे ॥१०७॥ प्रशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और पात्र नाम के ये वृक्ष चैत्यवृक्ष जानने योग्य हैं । ये सभी वृक्ष स्वयं उत्कृष्ट थे तथा सिद्ध भगवान् की प्रतिमानों से युक्त थे ।। १०६ ।। चार गोपुरों से युक्त तीन कोटों से घिरे हुए ये चैत्यवृक्ष, छत्र, चामर, मृङ्गार तथा कलश श्रादि मङ्गल द्रव्यों से सुशोभित थे ।। १०६ ।। इन चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में पीठ के ऊपर देवीप्यमान, मरिनिर्मित जिनेन्द्र प्रतिमाएं सुशोभित हो रही थीं ॥ ११०॥ इन्द्रादिक देव, क्षीर सागर के जल आदि श्राठ महाद्रव्यों से उनकी पूजा करते हैं, प्रणाम करते हैं और स्तुति भी करते हैं ।। १११॥ तदनन्तर वनों के पर्यन्त भाग में वनवेविका थी जो ऊंचे ऊंचे चार गोपुरों से ऐसी जान पड़ती थी मानों प्राकाशाङ्गण का स्पर्श ही कर रही हो ।।११२।। इस वनवेदिका १. सिद्धार्था स्व० ।

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