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* श्री पार्श्वनाथ चरित शङ्खशब्दादिचिह्न विज्ञाय त्रीजिनकेवलम् । स्वदेवीभिः स्वदेवेश्च स्वभूत्या सह सोत्सवाः ।। ३३॥ स बाह्नादिदेवा भवनवासिन प्राशु वै । नियंयुर्दशधा भक्त्या जिनेन्द्रभक्तितत्पराः ।।३४।। भेरीरवादिभित्विा जिनकल्याण कोत्सवम् । दिव्यभूत्या समं देवैः स्वकान्ताभिश्व संमुदा ।।३।। निश्चक्रमुजिनेज्याय राष्टषा व्यन्तरामरा: । दिव्य स्रावस्त्रभूषाढया: स्वस्ववाहन मास्थिताः ।।३६। एवं चतुणिकाया गीर्वाणा: सेन्द्राः सचामराः । छादयन्तो नभोभागं ध्वजच्छत्रादिकोटिभिः ।।३।। पुरानकमहावाधिरीकृतदिग्मुखा: ।जयनन्दादि कोलाहलाने कमुखरीकृताः ॥३८।। जिनकवल्यम जातदिव्यगीतमनोहरैः ।हावभाव विलासाढरप्सरोव्रजनर्तमः ॥३६॥ कलाविज्ञानचातुर्यः कुर्वन्तः परमोत्सवम् । द्योतयन्तो दिशो व्योम स्वाङ्गभूषादिदोप्तिभिः । ४०। यागच्छन्त: शनैर्भूमि मुदाकाशादिवौकस: । विस्फारित सुनेत्रदूंगद दजिने शिन: ॥४१|| प्राम्थानमण्डलं दिव्यं विश्वद्धयेककुलगृहम् । पराय॑मरिणभिर्देवशिषिभिः परिनिर्मितम् ।।४२।। प्रास्थान मण्डलस्यास्य कोऽत्र वर्णयितृ क्षमः । विन्यासं यस्य निरिणे सूत्रधारोऽस्ति देवराट्।।४॥
चिह्नों के द्वारा केवलज्ञान को उत्पत्ति जानकर परम भक्ति से केवलज्ञान की पूजा के लिये उग्रत होते हुए निकले ।।३१--३२॥ शङ्खों के शद प्रादि चिह्नों से श्री जिनेन्द्र भगवान् के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जान कर अपनी अपनी देवियों, देवों, अपनी अपनी विभूतियों, उत्सवों, तथा वाहनों आदि से सहित दश प्रकार के भवनवासी देय जिनेन्द्र भक्ति में तत्पर होते हुए भक्तिपूर्वक निकले ॥३३-३४।। भेरियों के शब्द प्रादि से जिन कल्याणक के उत्सव को आन कर दिय विभूति, देव और देवाङ्गानाओं से सहित, दिध्य माला वस्त्र और प्राभूषणों से युक्त, अपने अपने वाहनों पर बैठे हुए पाठ प्रकार के व्यन्तर देव, हर्षपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिये निकले ॥३५-३६॥ इस प्रकार जो इन्द्रों से सहित थे, चामरों से युक्त थे, करोड़ों ध्वजारों और छत्रों प्रादि के द्वारा प्राकाश प्रदेशों को प्राच्छादित कर रहे थे, वेव दुन्दुभियों के विशाल शब्दों से जिन्होंने दिशानों के अग्रभाग को बहरा कर दिया था, जय, नन्द प्रादि के विविध कोलाहलों से जो शब्द कर रहे थे, जिनेन्द्र भगवान के कंबल्य महोत्सव से सम्बद्ध, मनोहर दिव्यगीतों, हावभाव विलास से सहित प्रमरानों के नृत्यों तथा कलाविज्ञान सम्बन्धी चतुराई से जो परम उत्सव कर रहे थे, अपने शरीर और आभूषणों को कान्ति से दिशामों और प्राकाश को प्रकाशित कर रहे थे, तथा हर्षपूर्वक आकाश से धीरे धीरे पृथिवी की ओर आ रहे थे ऐसे चतुरिण काय के बेवों ने अपने खुले हुए सुन्दर नेत्रों के द्वारा दूर से ही श्री जिनेन्द्र' भगवान के उस समवसरण को देखा जो दिव्य था, समस्त सम्पदानों का कुलगृह था, और देव कारीगरों ने श्रेष्ठ मरिणयों से जिसकी रचना को थी ॥३७-४२।। कवि कहते हैं कि जिसके बनाने में इन्द्र स्वयं सूत्रधार