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अष्टावश सगं.
[ २३३ तथाप्यस्योच्यते किञ्चित् सुशोभा रचनादिका । श्रुतेन येन भव्यानां शुभो भाव: प्रजायते ।।४४।। पञ्चप्रकोशविस्तारं परार्थ मणिमंचयः ।घटितं वृत्तमास्थानपीठं स्यात्विजगद्गुरोः ।।४।। पोठपर्यन्तभूभागमलंचक्र स्फुरदय ति: । धूलीशालपरिक्षेपो रत्नपांसुमयो महान् ।।४६।। इन्द्रवाए इवात्यन्ततेजस्वी वलयाकृति: । क्वचिदजनपुजाभः क्वचित्काञ्चनसच्छविः। १४७। क्वचिच्छुकच्छदच्छायः क्वचिद्विद् मपुञ्जभाक् । चन्द्रकान्तशिखाचूर्णमयः सोऽभाच्च तेजसा ||८|| चतसृष्वपि दिक्ष्वस्य स्वर्ण स्तम्भानलम्बिताः । तोरणा मकरास्फोटमणिमाला विरेजिरे ।।४६।। ततोऽन्तरान्तरं किञ्चिद् गत्वा तुङ्गा मनोहराः । वीथीनां मध्यदेशेषु तप्तहाटकनिमिता: ।।५।। मध्यप्रदेशतीर्थेशप्रतिमौघप्रतिष्ठिता: । ध्वजचामरघण्टासंगीतमङ्गलनतन: ।५१॥ नित्यातोद्यमहावाधर्मानस्तम्भा विभान्ति च । स्तम्भयन्तो सतां मानं मूनि छन्नत्रयाङ्किताः ।।५२।। चसुगोपुरसंयुक्ताः प्राकारत्रयवेष्टिता: । जगत्यस्त्रिजगन्नाथस्नपनाम्बुपवित्रिताः ॥५३।। था भगवान के उस समवसरण मण्डल के रचना का वर्णन करने के लिये यहां कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।४३।। तो भी शास्त्रानुसार इसकी कुछ रचना और उत्तम शोभा प्रादि का वर्णन पा जाता है जिसे भर जीवों के शुभ नाव होते हैं ।४।।
त्रिलोकीनाथ भगवान पार्श्व जिनेन्द्र का पांच कोश विस्तृत गोलाकार समवसरण श्रेष्ठ मगियों के समूह से बनाया गया था ॥ ४५ ॥ समवसरण के अन्तिम भूभाग को वेदीप्यमान कान्ति से युक्त, रत्नधूलि से तन्मय धूलिसाल का महान घेरा अलंकृत कर रहा था ॥४६॥ जो इन्द्रधनुष के समान अत्यन्त तेजस्वी था, चूड़ी के तुल्य गोल आकार को धारण करने वाला था, कहीं अजन के समूह के समान था, कहीं सुवर्ण के समान कान्ति थाला था, कहीं तोता के पल के समान कान्ति से युक्त था, कहीं मूगानों के समूह से सहित था, और कहीं चन्द्रकान्तमरिणयों के चूर्ण से तन्मय था ऐसा वह पूलिसाल अपने तेज से सुशोभित हो रहा था ।।४७-४८।। इस धूलिसाल की चारों दिशाओं में चार तोरण सुशोभित हो रहे थे जो सुवर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित थे तथा मकराकार देवीप्यमान मणियों की मालाओं से विभूषित थे ॥४६॥
__तदनन्तर कुछ भीतरी अन्तर को पार कर चार दिशा सम्बन्धी चार गलियों के मध्यवेश में चार मानस्तम्भ सुशोभित हो रहे थे जो ऊंचे थे, मनोहर थे, तपाये हुए सुवर्ण से निर्मित थे, बीच में तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के समूह से सहित थे, ध्वजा, चामर, घण्टा, संगीत, मङ्गल मय नृत्य तथा निरन्तर बजने वाले प्रातोद्य नामक वाद्यों से सहित थे, सत्पुरुषों के मान को रोकने वाले थे और मस्तक पर छत्रत्रय से युक्त थे ।।५०-५२॥ उन १ सप्तमुवर्ण रचिताः।