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* सप्तदश सर्ग .
[ २२५ ततोऽवबुध्य तीर्थेशस्योपसर्ग सुदुस्तरम् । स्वावधिज्ञानसम्पस्या होत्यसो चिन्तये दि ७६।। प्रहो यस्य प्रसादेन प्राप्तास्माभिरियं गतिः । तस्य मत्स्वामिनः प्रोपद्रवः संजायतेऽसुरात् ।। ८०।। पत्रहं न करोम्यद्य प्रत्युपकारमेव हि । पृथिव्या मत्परः कोऽत्र पापी वात्यघमो भवेत् ८१॥ विचिन्त्येति किलोद्भिध परी साई स्वकान्तया । पाजगाम द्रुतं पाश्वं जिनेन्द्रस्य फणीश्वरः ।।२।। त्रिपरीस्याशु त धेर्यशालिनं प्रोपसांगणम् । ननाम घरगन्द्रश्च भवत्या पपावती मुदा ।।८।। भट्टारकमथोड त्य प्रस्फुरत्फणपङि क्तभिः । भुवः प्रोत्थाप्य वेवोऽस्यात्तद्वाषाहानये द्रुतम् ।।४।। तस्योपरि विधायोज्य: सघनं फणमण्डपम् । वचतुल्यं जलाभेधे स्थिता देवी स्वक्तितः ।८।। तरसर्वोपद्रवं तस्याशु तकाम्यां निवारितम् । स्वशक्त्या परया भक्त्या फर्णविद्युच्चमत्कृतेः ८६। ततो निरर्थको जातः स चाकिञ्चित्करोऽमरः । प्रतृणे पतितो वह्निर्यथा मन्दरुचिः स्वयम् ।।७।। महो क्व भुदि तीर्थेश: क्य तो पातालवासिनौ । सति पुण्ये न कि पुसा जायते दूरदुर्घटम् ।।८।। अपने भवधिज्ञान की सम्पत्ति से तीर्थंकर पर होने वाले बहुत भारी उपसर्ग को जानकर वह हृदय में ऐसा विचार करने लगा ॥७९॥ अहो ! जिनके प्रसाव से हमने यह गति प्राप्त की, हमारे उन स्वामी पर असुर से बहुत भारी उपसर्ग हो रहा है।1८०॥ यदि मान मैं प्रत्युपकार नहीं करता हूं तो पृथिवी पर मुझ से अधिक पापी पौर नीम दूसरा कौन होगा? ॥१॥ ऐसा विचार कर धरणेन्द्र पृथिवी का भेदन कर अपनी स्त्री के साथ शीघ्र हो जिनराज के समीप आ पहुंचा ॥२॥ धैर्य से सुशोभित तथा बहुत भारी उपसर्ग से पुक्त भगवान पार्श्वनाथ की तीन प्रदक्षिणाएं देकर भरणेन तथा पयावती ने भक्ति से हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार किया ॥३॥
तवनन्तर धरणेन्द्र शीघ्र ही भगवान को बाधा दूर करने के लिये उन्हें देवीप्यमान फरणानों की पंक्ति द्वारा पृथिवी से उठा कर खड़ा हो गया ।।४।। और उनके ऊपर पावती देवी अपनी भक्ति से उन्नत, सघन, वनसदृश तथा जल के द्वारा प्रमेय फणामण्डप तान कर खड़ी हो गई ॥८॥ धरणेन्द्र और पपावती ने अपनी शक्ति पौर परम भक्ति से बिजली के समान चमकते हुए फरणों के द्वारा उनका यह समस्त उपसा दूर कर दिया ॥६६॥ तदनन्तर जिस प्रकार तृण रहित भूमि में पड़ी हुई अग्नि स्वयं मन्दकान्ति हो जाती है उमो प्रकार वह संवर देव भी निरर्थक तथा प्रकिञ्चिकर हो गया ॥७॥ अहो ! पृथिवी पर विद्यमान पार्श्व तीर्थकर कहां और पाताल में निवास करने वाले वे धरणेन्द्र और पचायती कहाँ ? ठीक है पुण्य के रहते हुए पुरुषों का कौनसा असंभव कार्य संभव नहीं हो जाता ? ।।८।।
१. तत्ताभ्यां ख. गल।