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*श्री पारर्धनाथ चरित - चेतनेतरमिश्रेषु सर्वसङ्गेषु तीर्थ राट् । सस्पृहः तपसादिश्रीषु मुक्ति रमणीसुग्थे ।।११।। पञ्चमुष्टिभिरुत्पाटय केशान्मूलात्स्वपाणिना । प्राददे परमां दीक्षा मुक्तिनारीवश कराम् ।।१११।। पौषे मास्यत्तिते पक्षे एकादश्यां स्वमुक्तये । पूर्वाह्न साम्प्रतापनः पत्यकासनमाश्रितः ।। ११२।। तस्साहसं विलोक्याशु भूभुजस्त्रिशतप्रमाः। 'निर्वेदाच्छ जिनेनामा जगृहः संयम परम ११३॥ भूषासम्वस्त्रसंत्यागाजातरूप जगद्गुरोः । इन्द्रनीलमणीनां सत्तेजःपुमिवावभो ।।११४।। विरम्य सर्वसावयाच्छि ,त: सामायिक यमम् । व्रतगुप्तिसमित्यादीन् समस्तापनिवारकान् ।११५।। महोत्तरगुणेभूलगुणान् विश्वगुणप्रदान् । अष्टाविंशतिभेदांचाददे प्रीजिनपुङ्गवः ।।११६।। 'बालान भगवतो मूनि वासाद्रम्यान् पचित्रितान् । प्रत्यच्छन्मघवा रत्नपटल्यां मानहेतवे ।।११७।। ततो नीत्वा महाभूस्या देवेशा अंशुकावृतान् । वहुमानकृतान्पूताक्षी राब्धी ताग्निविक्षिपु: । ११८।। तदो जगत्त्रयाधीशं ज्ञानज्योतिगिरीपतिम् । देवं तुष्टुवुरित्युच्चैः "कल्पनःथा गुणवजैः ।।११६।। हैं ऐसे तीर्थपति भगवान पार्श्वनाथ ने शिला पर उत्तराभिमुख होकर सिखों को नमस्कार किया, तीन दिन के उपवास का नियम लिया । पञ्चमुष्टियों द्वारा अपने हाथ से केशों को जड़ से उखाड़ डाला और इस तरह मुक्तिरूपी नारी को वश करने वाली उत्कृष्ट वीक्षा पहरण कर लो ।।१०६-१११॥ पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन पूर्वाल के समय पर्यङ्कासन से स्थित हो तथा साम्पभाव को धारण कर प्रात्ममुक्ति के लिये उन्होंने दीक्षा ली थी॥११२।। उनका साहस देख तीन सौ राजाओं ने शीघ्र ही वैराग्य होने से श्री जिनेन्द्र के साथ उत्कृष्ट संयम ग्रहण किया अर्थात् भगवान के साथ तीन सौ अन्य राजाओं ने भी दीक्षा ली ॥११३।। प्राभूषण, माला तथा वस्त्रों का सर्वथा त्याग करने से जगद्गुरु का बालक जैसा निर्ग्रन्थ रूप इन्द्रनीलमणियों के उत्तम तेज समूह के समान सुशोभित होने लगा ।।११४॥ जिनराज पार्श्वनाथ ने समस्त सावध सपाप कार्यों से निर्धत्त होकर सामायिक संयम को धारण किया तथा उत्तर गुणों के साथ समस्त पापों का निवा. रण करने वाले और समस्त गुरगों को देने वाले अढाईस मूलगुरग ग्रहण किये । ११५-११६। भगवान के मस्तक पर निवास करने से पवित्र रमणीय केशों को इन्च ने सम्मान के हेतु रत्नमय पिटारे में रक्खा ।।११७।। तदनन्तर जो वस्त्र से मुके हुए हैं, जिनका बहुतभारी मान किया गया है और जो पवित्र हैं ऐसे उन फेशों को इन्द्रों ने बड़ी विभूति के साथ ले आकर क्षीर समुद्र में क्षेप विया ।।११।। पत्पश्चात् इन्द्र, तीनों जगत् के स्वामी, जानरूपी ज्योति तथा वाणी के अधीश्वर श्री पार्य देव की गुणसमूह के कारण इस प्रकार उच्च स्वर से स्तुति करने लगे-॥११॥ १. वैराग्यात् २. केशान् ३, मंशकास्थितान ख. प. ४. स्व गेंन्द्राः ।