________________
[ २१५
* षोडश सगँ *
परमेष्ठिने ||१३६ ॥
ततस्तुभ्यं नमो नाथ वि संख्यगुणशालिने । नमस्ते जगदानन्ददायिने नमस्ते तीर्थनाथाय विष्टिविघातिने । दीक्षिताय नमस्तुभ्यं मुक्तिकान्तात्तचेतसे ।। १४० ।। दिगम्बराय तुभ्यं नमो बालब्रह्मचारिणे । निजात्मध्यानलीनाय नमस्ते गुण सिन्धवे ।। १४१|| हिताय स्वान्ययोर्नाय नमस्ते दिव्यमूर्तये । कामारिनाशिने तुभ्यं नमोऽक्षजयिने विभो । १४२ । असंवृत्ताय विश्वाशापूरणाय च ते नमः । चतुर्ज्ञानविभूषाय नमस्तेऽवहृताय च ।।१४३।। इत्यभिष्टुत्य देव स्त्रां प्रार्थयामोऽधुना वयम् जगत्त्रितयसाम्राज्यं नात्र निलोभिनो भुवि ॥ १४४ ॥ किन्तु देहि जगनाथ बाल्येऽष्टवर्ष संमिते । दीक्षां भवे भवे साद्ध" सारैः सर्वभवद्गुः । १४५॥ स्तुत्वेति कल्पनाथाः कृत्वा मीष्टप्रार्थनां पराम् । उपा बहुधा दृष्यं श्रेष्ठाचारं स्तवैः || १४६।। त्रिः परीत्योत्तमाङ्ग ेन त्वा तच्चरणाम्बुज । प्रमोदनिर्भरा जग्मुः स्वं स्वं स्थानं सहामरः ११४७ जिनेन्द्रस्तत्क्षणं प्राप्य चतुर्थज्ञानमञ्जसा । निश्चलाङ्गोऽतिशान्तात्मा व्यधाद् ध्यानं स्वमुक्तये ॥१३८ ।। हे नाथ ! असंख्यात गुणों से सुशोभित श्रापके लिये नमस्कार है । जगत् को श्रानन्व देने वाले परमेष्ठी स्वरूप प्रापको नर है ९३६ ॥ समस्त प्रनिष्टों को नष्ट करने वाले आप तीर्थंकर के लिये नमस्कार है । दीक्षित तथा मुक्तिरूपी कान्ता में संलग्न चित्त वाले प्रापको नमस्कार है ।। १४०|| जो दिगम्बर हैं तथा बालब्रह्मचारी हैं ऐसे प्रापके लिये नमस्कार है । श्रात्मध्यान में लीन तथा गुणों के सागर स्वरूप आपके लिये नमस्कार है ।। १४१ ।। हे नाथ ! स्वपर के हितकारक तथा दिव्य शरीर को धारण करने वाले आपके लिये नमस्कार हो । हे विभो ! कामरूपी शत्रु को नष्ट करने तथा इन्द्रियों को जीतने वाले प्रापको नमस्कार है ।। १४२ ।। जो स्वयं श्रसंपन्न रहकर भी समस्त जीवों की आशाओं को पूर्ण करने वाले हैं ऐसे प्रापको नमस्कार हो और जो चार ज्ञानों से सहित हैं तथा पापों को नष्ट करने वाले हैं ऐसे प्रापके लिये नमस्कार है ।। १४३|| हे देव ! इस प्रकार स्तुति कर इस समय आपसे हम तीन लोकों का राज्य नहीं चाहते हैं क्योंकि पृथिवो पर हम लोभ रहित हैं ।। १४४ ।। किन्तु हे जगन्नाथ ! यह तो दीजिये कि भव भव में आठ वर्ष की बाल्यावस्था में सारभूत प्रापके समस्त गुरणों के साथ हम दीक्षा धारण कर सकें ।। १४५ ।। इस प्रकार स्तुति कर प्रत्यधिक अभीष्ट प्रार्थना कर, श्रेष्ठ श्राचार और गुरणों के स्तवन से बहुतभारी पुण्य का उपार्जन कर, तीन प्रदक्षिणाए देकर और मस्तक द्वारा उनके चरण कमलों को नमस्कार कर हर्ष से भरे हुए इन्द्र देवों के साथ अपने अपने स्थानों पर चले गये ।११४६ - १४७॥ भगवान् पार्श्वनाथ उसी समय मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर स्थिर शरीर हो गये धौर प्रत्यन्त शान्त चित्त होकर अपनी मुक्ति के लिये ध्यान करने लगे ।। १४८ ।।
१ शालिनः ख०२ स्वर्गेन्द्राः ।