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* श्री पार्श्वनाथ चरित . सावविरति सर्वामूरीकृत्याखिलावित् । तद्भदान्पालयामास निर्मलाचवताप्तये ।।२।। सत्यमहावतं मौनी मीनेन पालयेत्रिषा । प्रस्तेयत्रततात्पर्य व्यधात्सर्वत्र निःस्पृहः ।।२६।। मात्रादिसपृशा मर्या स्त्री विधाय स्वमानसे । नवधा ब्रह्मवयं स दध्यात्कृस्न 'मलालिगम् ।।३०। बाह्याभ्यन्तरसङ्गषु मूछो हत्वातिनि:स्पृहः । दिग्दशाम्बर एवाधात पूर्ण स प्रतपञ्चमम् ।३१।। महाव्रतानि पञ्चवमनिशं पालयत् जिनः । तच्छुद्धयर्थ सदैताः स भावयामास भावना: १३२॥ बचोगुप्तिर्मनोगुप्तिरीसिमितिसंशिका । तथैवादाननिक्षेपोत्सर्गाच्या समिति: परा ।।३३।। चाभ्यां हि दिनालोकितपानभोजनं विमाः । भावनाः पञ्च विज्ञेयाः प्रथमवतशुद्धिदाः ।। ३४॥ कोषलोभभयत्यागाः सर्वथा हास्यवर्जनम् । वाणी सूत्रानुगाहीति' द्वितीयव्रतभावनाः ।।३।। मितोचिताम्यमुशातग्रहणान्य ग्रहोऽन्यथा । संतोषो भक्तपाने च तृतीयवतभावनाः ३६।। स्त्रीशृङ्गारकथारागाश्रवणं चानिरीक्षणम् । स्त्रीमनोहररूपस्य नारीणां सङ्गवर्जनम् ।।३७॥ पूर्वसेवितभोगानां हृद्यनुस्मरणापहम् । वृष्येष्टानरसत्यागः पञ्चेति ब्रह्मभावनाः ।।३।।
समस्त पदार्थों को जानने वाले भगवान् ने समस्त सायद्य-सपाप कार्यों का त्याय स्वीकृत कर निर्मल हिसावत की प्राप्ति के लिये उसके भेदों का पालन किया ।।२८॥ मौम को धारण करने वाले जिनेन्द्र ने मन बचन काय के भेद से तीन प्रकार के मौन द्वारा सत्य महावत का पालन किया था। समस्त पदार्थों में नि:स्पृह रहने वाले पार्श्व जिनेन्द्र मे प्रचौर्य महावत में तत्परता को थी ।।२६।। अपने मन में समस्त स्त्रियों को माता प्रादि के समान समझकर उन्होंने नौ प्रकार का निर्दोष ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था ॥३०॥ अत्यन्त निःस्पृह पार्य जिनेन्द्र बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों में मूर्धा को छोड़ कर दिगम्बर हो हो गये थे इस प्रकार उन्होंने पूर्ण पञ्चम महायत अपरिग्रह महाव्रत को धारण किया था ॥३१॥ इस प्रकार निरन्तर पांच महावतों का पालन करते हुए पाश्वं जिन, उन महावतों को शुद्धि के लिये सदा इन भावनाओं का चिन्तबन करते थे ॥३२।।
वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, प्रादाननिक्षेपणसमिति, मोर नेत्रों से बेखकर विनालोकितपानभोजन ये पांच भावनाएं अहिंसावत की शुद्धि को देने वाली जाननी चाहिये ।।३३-३४॥ क्रोधत्याग, लोभत्याग, भयत्याग, सब प्रकार का हास्यत्याग और अनुवोचिभाषण ये सत्य महावत की भावनाएं हैं ॥३५।। मितग्रहरण, उचितग्रहण, अभ्यनुशाप्त ग्रहण, अन्यथा प्रग्रहण और भक्तपान में संतोष ये पांच प्रचौर्य महावत को भावना हैं ।।३६॥ स्त्रियों की भृङ्गार कथा में राग बढ़ाने वाले गीत प्रादि का नहीं सुनना, स्त्रियों के मनोहर रूप का नहीं देखना, स्त्रियों का सङ्ग छोड़ना, पूर्व सेषित भोगों के स्मरण का १. निखिलदोषरहितम् । २. सूत्रानुगहीति नः ।