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* सप्तदश सर्ग.
[ २१६ कृतार्थतरमात्मानं मेने धूपः सुवानसः । गार्हस्थ्य सफल स्वस्प जीवितं च धनार्जनम् ।१६।।
ममोदतः पण्यं तदन्ये बहवोऽभजन । परं रत्नं यथासाद्य स्फटिकस्तच भजेत ॥२०॥ ययात्र लभ्यते लक्ष्मी: पात्रदानारसुलोद्भवा । तथा मुत्र स्फुटं मोगधरा नाकालये परा॥२१॥ अहो घन्यास्त एघार दातारो ददतेऽत्र ये। अन्वहं परमं दानं यतिवृत्तिप्रबद्धं काः ॥२२॥ अग प्रायस्सवाहार गृहीरवा समचित्ततः । राग हत्वा यपालब्ध पाणिपात्रेण संस्थितः ॥२३॥ पृत्तज्ञानादिबुद्धयर्थ पवित्र संविधाय सः । तद्गृहं ध्यानसंसिद्ध ह्येकाकी सदनं ययौ ।२४१ पाहारवीर्यसामाज्जिनो भेजे परं सपः । कर्माचरीन् ममो हन्तुग्रासपुष्टो यथा हरिः ॥२५॥ मोहान्धतमसध्वंसकारिणी विश्वशिनी । दिदीऽस्य मनोगेहे महती बोधदीपिका ॥२६॥ गुणास्थया गुणान्पश्येत् दोषान् दोषास्थयात्र य: । हेयाहेयादिवित्स स्यात्क्यापरस्येष्टमी गतिः ॥२७॥ १. रस्नवृष्टि २. पुष्पवृष्टि ३. देवदुन्दुभिताडन ४. मन्द सुगन्धित बायु का संचार और ५. 'हो दानं ग्रहो पात्रं ग्रहो दाता' को घोषणा ये पञ्चाश्चर्य किये थे ॥१८॥ उस उत्तम दान से राजा ने अपने पापको कृतकृत्य माना तथा गृहस्थता, अपना जीवन तथा धनार्जन को सफल समझा ॥ १६ ।। जिस प्रकार उत्कृष्ट रत्न को पा स्फटिकमरिण उल रत्न के समान कान्ति को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार वान की अनुमोवना से उस समय अन्य बहुत लोगों ने पुण्य प्राप्त किया था ॥२०॥ जिस प्रकार पात्रदान से इस जगत में सुख से प्राप्त होने वाली लक्ष्मी उपलब्ध होती है उसी प्रकार पर भव में भोगभूमि और स्वर्ग की उत्कृष्ट संपदा प्राप्त होती है ।२१। ग्रहो ! इस लोक में वे ही दाता धन्य हैं जो पहा मुनिवृत्ति को बढ़ाते हुए प्रतिदिन उत्तम दान देते हैं ॥२२॥
तवनन्तर सम्यक् प्रकार से खड़े हुए भगवान ने जैसा कुछ प्राप्त हुमा वैसा आहार समचित्त से पाणिपात्र द्वारा ग्रहण किया था। उन्होंने यह प्राहार राग को नष्ट कर चारित्र तथा ज्ञानादि की वृद्धि के लिये ग्रहण किया था। आहार लेकर तथा राजा मत्याख के घर को पवित्र कर वे ध्यान की सिद्धि के लिये अकेले ही उत्तम बन की ओर चले गये ॥२३२४।। माहार जनित शक्ति की सामर्थ्य से जिनेन्द्र देव उत्कृष्ट तप की पाराधना करने लगे तथा प्रास से पुष्ट सिंह के समान कर्मादिक शत्रुनों को नष्ट करने के लिये समर्थ हो गये ॥२५॥ इनके मनरूपी गृह में मोहरूपी गाढ अन्धकार को नष्ट करने वाली तथा सबको दिखाने वाली बहुत बड़ी ज्ञानरूपी दीपिका देवीप्यमान होने लगी ॥२६॥ इस जगत में जो गुरगों को गुणों की श्रद्धा से और दोषों को दोषों को श्रद्धा से देखता है वही हेयोपादेय प्रावि पदार्थों का ज्ञाता हो सकता है अन्य की ऐसी गति कहां होती? अर्थात् कहीं मही२७॥ १ तद्गृहे ग.।