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* घोडश सर्ग *
[ २११
नातिदूरे खमुत्पश्य
लोकार्ना
तस्मिन्प्रदेशेऽतिरम्ये
॥१०३॥
नेत्रगोचरम् । नातिदूरे नगर्यास्तस्या नातिनिकटे चिरात् । १०० ।। . ययोक्तं मंङ्गलारम्भेर्मोक्ष लक्ष्मीसमुत्सुकः | कुमारोऽमवदनं प्रायात्मनोशं सुरवेष्टितः ।। १०१ ॥ रम्यशिलासले | चन्द्रकान्तमये 'वृस' देवः प्रागुपकल्पिते ।। १०२ ।। पुष्पवृष्टिसमाकी तदच्छायातिशीतले । शची स्वकरविन्यस्तमशिवरापहारके पर्यन्तमङ्गलद्रव्ये केतुमालावृताम्बरे । धूपवासितदिग्भागे चिमण्डप ॥ १०४ ॥ इत्यादिबहुशोभाद्धं वास्तुप्रतिष्ठितं । यानादवातर वोऽमरैः कमावतारितात् ।। १०५॥ प्रशान्तेऽथ जनक्षोभे गीतवाद्यादिस्वने । सर्वत्र समतां सम्यग्भावयम् शुभभावनाम् ।। १०६ ।। तत्रासीनोऽरिमिश्रादी हेम दिवस्तुषु । क्षेत्रादिदशधा वाह्मपरिग्रहांश्चतुवंश ।।१०७॥ मिथ्यात्वाद्यन्तरङ्गांश्च त्रिशुद्धया परिहाप्य सः । वस्त्राभरणमाल्यानि व्युत्सृजेन्मोहहानये ||१०८ ॥ धनूत्तरमुखो भूत्वा कृत्वा सिद्धनमः क्रियाम् । समादायाष्टमाहारत्यागं सोऽश्यन्तनिःस्पृहः ॥ १०६ ॥
शस्ते
तदनन्तर मोक्षरूपी लक्ष्मी में उत्कण्ठित और देवों से परिवृत पार्श्वकुमार, जहां तक लोग देख सकते थे वहां तक कुछ दूर आकाश में चलकर उस नगरी के न अधिक दूर और न अधिक समीप मनोहर अश्ववन में बहुत विलम्ब से पहुंचे ।। १०० - १०१ ॥ | वहां feit एक अत्यन्त सुन्दर प्रवेश में देवों द्वारा पृथ्वी पर उतारी हुई पालकी से निकलकर भगवान् पार्श्व वेब, जो चन्द्रकान्तमरिण से निर्मित था, गोल था, देवों के द्वारा पहले से ही निश्चित था, फूलों की वर्षा से व्याप्त था, वृक्षों को छाया से अत्यन्त शीतल था, इन्द्राणी ने अपने हाथ से जिस पर मणियों के चूर्ण द्वारा बलि रचना की थी, जिसके पास मङ्गल द्रव्य रखे हुए थे, जिसने पताकाओं के समूह से भ्राकाश को व्याप्त कर रक्खा था, जिसको दिशाओं का भाग ध्रुप से सुवासित होरहा था, जो चित्र विचित्र मण्डप से सुशोभित था, इत्यादि बहुत प्रकार की शोभा से सहित था, प्रशस्त था और वस्तुदेव की प्रतिष्ठा से सहित था ऐसे मनोहर शिलातल पर अवतीर्ण हुए ।।१०२ - १०५ ।।
तदनन्तर जब मनुष्यों का कोलाहल तथा गीत वादित्र आदि का सुन्दर शब्द शान्त होगया तब उस शिलातल पर विराजमान तथा शत्रु मित्र और तृरण सुवणं आदि सभी regsों में समता नामक शुभ भावना की भावना करने वाले भगवान् पार्श्वनाथ ने क्षेत्र प्रादि दश प्रकार के बाह्य और मिथ्यात्व श्रादि चौदह प्रकार के अन्तरङ्ग परिग्रहों का मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक त्याग कर मोह को नष्ट करने के लिये वस्त्र श्राभूषण तथा माला प्रादि को छोड़ दिया ।।१०६-१०८ ॥
तदनन्तर जो चेतन प्रचेतन और मिश्र नामक सभी परिग्रहों में अत्यन्त निःस्पृह हैं, साथ हो तप श्रादि लक्ष्मी तथा मुक्तिरूपो रमरगी के मुख में सस्पृह - प्रभिलाषा से सहित २. वास्तुदेवप्रतिष्ठयुक्ते ।
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