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* नबम सर्ग *
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दिव्यं सुधामयं सर्वस्वेन्द्रियाहादनक्षमम् ।प्राप्तकामसुखश्चित्त न स्वस्त्रीस्मरणात् स्वयम्।।५।। मापञ्चमक्षितिव्याप्ततृतीयावगमेक्षण:' । स्वावधिक्षेत्रपर्यन्तविक्रियाद्धवलान्धितः ।।६।। सामानिकादिदेवोघर्भक्त्या नुतकमाम्बुजः । देवीनिकरमध्यस्थोऽतिशर्माम्बुधिजीवित: ॥६७।। मनोऽभिलषितैर्भोगः परिपूर्णमनोरथः । असंख्यसुरसंघातसेव्यमानोऽप्यहोऽनिशम् ॥६८| अङ्गदीप्त्या सुनेपथ्य रश्मिजालैः सुराधिपः । तेजः पुञ्ज इवाभाति सभामध्ये यशोऽथया ||६||
शार्दूलविक्रीडितम् एवं धर्मविपाकतोऽमरनुतो भूतिञ्च शक्रोद्भवां
लब्ध्या दिव्यसुराङ्गनां स विविध सौख्यं सुवाक्यातिगम् । भुक्त दिव्यमनारतं सुविबुधः ज्ञात्वेति यत्नं परं
सेवं जिन शो दिमागले गर्ग सागर: ।।१०।। धर्मो नाकन रेएबरादिसुस्वदो धर्म पिता धमिणो
धर्मेणाशु समाप्यते शिवगतिर्धर्माय मुक्त्यै नमः । में समर्थ मानसिक पाहार ग्रहण करता था, हदय में अपनी देवाङ्गनामों के स्मरण मात्र से उसे स्वयं कामसुख प्राप्त हो जाता था, उसका अवधिज्ञानरूपी नेत्र पञ्चम पृथिवी तक ध्याप्त था अर्थात यहां तक के पदार्थों को जानता था, अपने प्रवधिज्ञान के क्षेत्र पर्यन्त ही यह विक्रिया द्धि की शक्ति से युक्त था ।।६२-६६॥ सामानिक प्रादि देवों के समूह भक्ति पूर्वक जिसके चरण कमलों की स्तुति करते थे, जो देवी समूह के मध्य में स्थित पा, जिसका जीवन अत्यधिक सुख का सागर था, मनोभिलषित भोगों के द्वारा जिसका मनोरष पूर्ण था, और असंख्य देवों के समूह जिसकी निरन्तर सेवा करते थे ऐसा वह इन्द्र, शरीर को कान्ति तथा वेषभूषा की किरणावली से सभा के मध्य में तेजः पुस्ज के समान अथवा यश के समान सुशोभित होता था|६७-६६॥
इस प्रकार देवों के द्वारा स्तुत वह इन्द्र, धर्म के फल से इन्द्र की विभूति और सुम्बर देवाङ्गनामों को प्राप्त कर निरन्तर विविध प्रकार के वचनागोचर विव्य सुख का उपभोग करता है ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो! जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपविष्ट अतिशय निर्मल धर्म के विषय में उत्कृष्ट व्रतादिक के द्वारा परम प्रयत्न करो ॥१००॥ धर्म, स्वर्ग तथा चक्रवर्ती प्रादि के सुख को देने वाला है, धर्मात्मा जन धर्म का प्राश्रय लेते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही मोक्षरूपी गति प्राप्त होती है, मुक्ति के हेतु धर्म के लिये नमस्कार है, धर्म
१. अवधिज्ञानलोचन: २. मरनुतेः क... वचनागोचरम् ।