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* बसम सर्ग *
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दशमः सर्गः जगद्धितो अगनाथो अगढन्यो जगद्गुरुः । वन्दिप्तो यो मया सोऽस्तु पाश्चों मे स्वगुणाप्तये ॥१॥ द्वीपेऽस्मिनथ विख्याते प्रथमे भरताभिधे । क्षेत्रेऽस्ति काशिदेशोऽनेकधार्मिकबुधाकुलः ॥२॥ प्रामखेटमटम्बद्रोणमुखाः पुरवाहनाः ।यश्र धान्यादिसंपूर्णा विभान्ति पत्तनादयः ।।३।। धर्मवद्भिर्जनैर्दक्षः सानोपयनादिभिः । तुङ्गकूटैजिनागारैदिव्या धर्माकर इव ॥४॥ रति कुर्वन्ति यत्रोच्चैः सच्याये सफले बने । ध्यानाध्ययनसंसिद्धय मुनीन्द्रा निर्जने शुभे ॥५॥ व्युत्सर्गस्यमुनी शौघतटभूषाङ्किताः शुभाः ।वहन्ति सृड्यनाशिन्यो यत्र नद्यो मनोहराः ।।६।। वापीकूपसरांस्यत्र खतृष्णास्फेटकानि च । महास्वच्छानि शोभन्ते यतेर्वा हृदयान्यपि ||७|| तुङ्गानि सफलान्युच्चस्तर्पकाणि सतां सदा । शालिक्षेत्राणि भान्त्यत्र मुनेराचरणानि वा' ||६|| केवलज्ञानिनो पत्र त्रिजगज्जनवेष्टिताः । विहरन्ति महाभूत्या मुक्तिमार्गप्रवृत्तये ||
दशम सर्ग जगत् हितकारी, जगन्नाथ, जगद्वन्ध और जगद्गुरु जो पार्श्वनाथ मेरे द्वारा वन्दित हए है वे मुझे अपने गुरगों की प्राप्ति के लिये हों ॥१॥
अथानन्तर इस विख्यात प्रथम जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक काशी नामका देश है जो अनेक धर्मात्मा विद्वज्जनों से व्याप्त है ॥२॥ जिस देश में धन धान्यावि से परिपूर्ण ग्राम, खेट, मटम्ब, द्रोणमुख, पुर, वाहन तथा पत्तन प्रावि सुशोभित हो रहे हैं ॥३॥ चतुर धामिक जनों से, उत्तम बन उपवन प्रावि से तथा अंचे कंधे शिखरों वाले जिन मन्दिरों से मनोहर वे पत्तन प्रादि धर्म को खानों के समान सुशोभित हैं ॥४॥ जहां पर मुनिराज ध्यान और अध्ययन की सिद्धि के लिये चे, उत्तम छाया से युक्त, फलों से सहित शुभ
और निर्जन वन में प्रीति करते हैं ॥५॥ जहां कायोत्सर्ग में स्थित मुनिराजों के समूह से उपलक्षित तटरूपी प्राभूषणों से सहित, प्यास को नष्ट करने वाली शुभ तथा मनोहर नदियां बहती हैं ॥६॥ जहां इन्द्रियों को तृष्णा को नष्ट करने वाले, अतिशय स्वच्छ, वापी कूप और सरोवर, मुनि के हृदय के समान सुशोभित होते हैं ॥७॥ जहां पर ऊचे, फलों से युक्त तथा सत्पुरुषों को सदा संतुष्ट करने वाले धान के खेत मुनि के प्राचरण के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं ॥८॥ जहां पर तीनों लोकों के प्राणियों से घिरे हुए केवली
१. च न. २ विहरन्ति निरन्तर भूत्या मुक्तिप्रवृत्तये क० ।