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* द्वादशम सर्ग
[ १४७ पुरोऽस्याप्सरसो नेटुर्गीतर्गन्धर्वजैः समम् । भ्रूपताको समुरिक्षप्य हावविर्मनोहरैः ॥४६॥ जिनेन्द्रगुणहव्यानि दिव्यगीतानि सादराः । तदा गायन्ति किन्नों वीणाभिः सुस्वरमुंदा ॥५०॥ देवदुन्दभयोऽम्भोधिध्वाना: सुरकराहताः । ध्वनन्ति घोषयन्तो वा यशः शुभ्रं जिनेशिनः ।५।। दिव्यं जिनाङ्गसौन्दर्य पश्यन्तोऽनिमिषेक्षणाः । निनिनिभेषसुनेत्राणां फलं प्रापुस्तदा सुराः ।।५।। दृष्ट्वा तदातनी शोभा भूति केचित्कुदृष्टयः । स्वीकुर्युर्दर्शनं देवाः शक्रप्रामाण्यमाश्रिताः ॥१३॥ केचित्तन्महिमा २ दृष्ट्वा जैनधर्मे मति व्यधुः। केचित्संवेगवैराग्यादीनगुर्धर्मवासिता: ॥५४॥ ज्योतिष्पटल मुल्लङ्घय प्रययुः कल्पनायकाः । द्योतयन्तो दिशःखं च स्वाङ्गभूषांशुभिस्तराम् ॥५५॥ तत: 'कल्पाधिपाः प्रापुस्सं गिरीन्द्र सपुच्छ्रितम् । योजनानां सहस्राणि नवति हि नवाधिकम् ॥५६।। सहस्रकन्दहेमाद्रे रस्य मूनि सुचूलिका । मुकुटोरिवाभाच्चरवारिंशद्योअनोच्छिता (५७॥ चूारत्नमिवाभाति तस्या उपरि शाश्वतम् । नरक्षेत्रमितं दिव्यं विमानमृजुसंज्ञकम् ।।५।। से इन्द्र धनुषों को विस्तृत कर रहे थे ऐसे इन्द्र प्रकाश में ऊपर की ओर गये ॥४॥ जिनबालक के आगे अप्सराए मनोहर हावभावों से भौंहरूपी पताका को ऊपर उठकार गन्धवों के गान के साथ नृत्य कर रही थी अर्थात् गन्धर्व गीत गा रहे थे और अप्सराए लय के साथ नृत्य कर रही थीं ॥४६।। उस समय पावर से भरी किन्नरियां जिनेन्द्र देव के गुणों से रचित दिग्य गीत वीणानों द्वारा मनोहर स्वर से हर्षपूर्वक गा रही थीं ॥५०॥ समुद्र के समान शब्दों वाली तथा देवों के हाथों से ताडित देवदुन्दुभियां शम कर रही थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानों जिनेन्द्र देव के शुक्ल यश की ही घोषणा कर रही हों ॥५१॥
उस समय जिनेन्द्र भगवान के शरीर सम्बन्धी विष्य सौन्दर्य को देखते हुए देवों में अपने टिमकार रहित नेत्रों का फल प्राप्त कर लिया था ॥५२॥ उस समय की शोभा और विभूति को देखकर कितने ही मिथ्यादृष्टि देवों ने इन्ध्र की प्रामाणिकता को प्राप्त हो सम्यग्दर्शन स्वीकृत किया था अर्थात् इन्द्र को प्रामाणिक पुरुष समझ सम्पग्दर्शन धारण किया था ॥५३॥ किसने ही देवों ने उनकी महिमा देख जैनधर्म में बुद्धि लगाई थी और धर्म की वासना से युक्त किसने हो देव संवेग और वैराग्य को प्राप्त हुए थे ॥५४॥ अपने शरीर और प्राभूषणों की किरणों से विशाओं तथा प्राकाश को प्रत्याधिक प्रकाशित करते हुए थे इन्द्र ज्योतिष्पटल को लांघकर पागे निकल गये ॥५५॥ तदनन्तर इन्द्र उस मेर पवंत पर जा पहुंचे जो निन्यानवे हजार योजन ऊंचा है ॥५६॥ एक हजार योजन प्रमाण जिसकी जड़ है ऐसे उस सुमेरु पर्वत के शिखर पर चालीस योजन ऊंची चूलिका मुकुट के समान सुशोभित हो रही थी ।।५७॥ उस बूलिका के ऊपर चूडारत्न के समान शाश्वत
१. देवाः २. माकारान्त स्त्रीनिझमहिमा पम्दस्य प्रयोगो महाकविना असगेनापि 'वद मानपरित' कृतः ३. सौधर्मेन्द्रायः ४ सोधर्मेन्द्रादयः ।