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- चतुर्दशम सर्ग .
[ १७५ तेन दुःखमिहामुत्र चाज्ञानतपसा महत् । दुर्गत्यादिभवं तो ते भविष्यति दुधियः ॥७॥ इति तद्वाक्यमाकर्ण्य मलित्वा कोपर्वाह्नना । इस्थमाह तपस्वी स कुमारं प्रति मूढधीः ।।७२। महं ज्येष्ठस्तपस्वी चाम्बापिता' तव किं मम । दुर्मदेन कुमार त्वं करोषि मानखण्डनम् ।।७।। तपसो मेऽतिमाहात्म्यमबुद्ध्वैव बीषि किम् । मानभङ्गकर वाक्यं निन्दाकरणमस्परम् ॥७४।। पञ्चाग्निमध्यवर्तित्वं मरुदाहारजीवनम् । ऊर्ध्वकरेफपादेन दुःकरा सुचिरं स्थितिः ।।७।। स्वयंपतितपर्णादीनां प्रोषधेन पारणम् । अधाशीतोष्णवातादिपरीषहजयं परम् ।।७।। इत्याधतातिसंश्लेशितापसाना सुदुरम् । महत्तपोऽस्ति नास्मादधिक त्वं विद्धि जातुधित् ।। तदाकर्ण्य जिनोऽवादीद्र' दुरात्मन् वयो मम । शृणु पथ्यं हितं सार ते कुमार्गनिषेधकम् ||८|| मिथ्यात्वेनाधिरत्या च प्रमादेन कषायतः । दुष्टयोगेन भूठाना महापापं प्रजायते ॥६॥ पञ्चाग्निसाधनेनैव पृथिव्याङ्गिराशयः । नियन्ते षड्विधाः सर्वदिक्षु तत्तापतो मृशम् ।। जीवघातेन घोराधं तस्य पाकेन दुर्गतौ । जायते च महदुःखं तापसाना जहात्मनाम् ।।१।। महान मात्रय नियम से हो रहा है इसमें संशय नहीं है ॥७०।। उस प्रशान तप से तुझ मूर्ख को यहां महान वास हो रहा है और परभव में दुर्गति प्रावि से होने वाला तीव दुःख होगा ॥७१॥ इस प्रकार समके बचन सुनकर तथा क्रोधाग्नि से जलकर उस मूड बुद्धि तापस ने कुमार के प्रति कहा ॥७२॥
मैं बड़ा है, तपस्वी है और तुम्हारी माका पिता है फिर भी हे कुमार तू दुब महंकार से मेरा मानखण्डन क्यों कर रहा है ?॥७३॥ मेरे तप के बहुत भारी माहात्म्य को न जानकर ही मानभङ्गकरने वाले तथा निम्दा करने में तत्पर वचन क्यों कह रहा है ? ।।७४।। पञ्चाग्नियों के बीच में रहना, मात्र वायु के प्राहार से जीवन निर्वाह करमा,
और एक हाथ ऊपर उठाकर एक पैर से चिरकाल तक खड़ा रहमा कठिन है ।।७५॥ उपवास के बाव स्वयं पड़े हुए पत्तों आदि से पारणा करना, तथा सुधा शीत उष्ण और वायु प्रादि का परिषह जीतमा इत्यादिक शरीर को अत्यन्त संक्लेशित करने वाला तापसों का तप प्रस्यन्त कठिन है। इससे अधिक बड़ा तप कभी नहीं है यह तू समझ ॥७६-७७॥
यह सुन पाय जिनेन्द्र ने कहा-रे दुष्ट ! मेरे वचन सुन, जो तेरे लिये पभ्य, हितकारी, सारभूत तथा कुमार्ग का निषेष करने वाले हैं ॥७॥ मिथ्यात्व से, अविरति से, प्रमाद से, कषाय से और दुष्टयोग से प्रज्ञानीजनों को महापाप होता है ।।७६।। पश्चाग्मियों की साधना से उनके ताप के कारण सब दिशाओं में पृथिवी प्रावि छह काय के जीवों के समूह अत्यधिक मात्रा में मरते हैं ॥५०॥ जीवघात से घोर पाप होता है, और १. मातामहः २. हे दुरास्मन कः ।