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• श्री पाश्वमाय चरित - इति मत्वा प्रयत्नेन कार्या सात्र मुमुक्षुभिः । कर्मणां मुक्तिलाभाय चियानतपसादिभिः ।।८८ रत्नत्रयेण सारेण त्रिकालयोगदुःकरैः । मनोऽक्षदमनेनैव कायक्लेशपरीषहैः ।।८६।
शार्दूलविक्रीडितम् संसाराम्बुधितारिका भयकरो दुःकर्मशत्रोः परां
सेव्यां श्रीक्षितपुष्ट गवैगुंगनिषि मुक्ति लियो मातरम । दुःखादौ पविसन्निभां सुखख मी श्वभ्रालयेष्वर्गला कुर्दीध्वं शिवलब्धये सुतपसा दक्षा: सदा निर्जराम् ।। E011
निर्जरानुप्रेक्षा पषोमध्योद्ध्यभेदेन लोको नित्यस्त्रिधात्मकः । प्रकृत्रिमो जिनः प्रोक्तो भृत: पडद्रव्यसंचयः ॥११॥ दरकाण्यप्यघोमागे सप्त दुःलाकराणि च । भवन्येकोनपञ्चाशत्पटलान्यखिलानि च ।१२।। चतुरशोतिलक्षाणि कुरिसतानि विलान्यपि । सर्वाशर्माकरीभूतानि स्युः कृत्स्नानि संग्रहै: ।।३।। ये सप्त व्यसनासक्ताः परस्त्रीधनलम्पटा: । क्रूरा रौद्राशया रौद्रकर्मध्यानादितत्परा: ||४|| कर्म पका लिये जाते हैं-निर्जीर्ण कर दिये जाते हैं ॥७॥ ऐसा जानकर यहां मोक्षाभिलाषी जीवों को मोक्ष की प्राप्ति के लिये ज्ञान ध्यान तप प्रावि, सारभूत रत्नत्रय, अतिशय कठिन त्रिकाल योग, मन तथा इन्द्रियवमन और कायक्लेश तथा परीषह जय के द्वारा पत्नपूर्वक कर्मों की अविपाक निर्जरा करना चाहिये ॥८८-८६॥ जो संसाररूपी समुद्र से तारने वाली है। दुष्टकर्मरूपी शत्रु का क्षय करने वाली है, उत्कृष्ट है, श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा सेवनीय है, गुणों का भाण्डार है, मुक्तिरूपी स्त्री की माता है, दु.खरूपी पर्यंत को नष्ट करने के लिये बच समान है, सुख की खान है तथा नरकरूपी घर की प्रागल है ऐसी निर्जरा को है चतुरजन हो ! मोक्ष की प्राप्ति के लिये उत्तम तप के द्वारा निरन्तर करो ॥६॥
( इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा का चिन्तयन किया ) जिनेन्द्र भगवान् ने अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से लोक तीन प्रकार का कहा है। यह लोक नित्य है, प्रकृत्रिम है और छह द्रव्यों के समूह से भरा हुआ है ॥१॥ अधोभाग में दुःखों को खानस्वरूप सात नरक हैं। इन सात नरकों के सब मिला कर उनचास पटल हैं और चौरासी लाख निन्द्य बिल्ल हैं। ये संपूर्ण बिल समस्त दुःखों की खान हैं ॥६२-६३॥ जो मनुष्य सात व्यसनों में प्रासक्त है, परस्त्री पौर परधन के लोभी है, क्रूर है, रौद्र परिणामी हैं, रौद्र कार्य तथा रौद्रध्यान में तत्पर हैं, मिथ्यात्व की वासना १. वयातुल्या।