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•षोडश सर्ग -
[ २०३ प्रयवा बोधिसोऽस्मान् संबोधयस्यखिलं हितम् । त्वं नाथात्र यथा दीपस्तमोनाश्वार्थदर्शक: ।१६) कुर्वन्ति रहितं निशास्त्र धीजिनाधिप । स्वान्ययोः स्वहितं की भविष्यस्ययदर्शनात् ।२०।। केवलज्ञान मेघस्त्वं भूत्वा दिव्यवचोऽम्बुभिः । सतां मोक्षफलप्राप्त्य धर्मवृष्टि करिष्यसि ।।२१॥ भवनिर्देशितं मार्ग केचिदासाद्य धोधनाः । देव हत्वा स्वकर्मारीन् वृत्ताधास्यन्ति निई तिम्।२२५ तव धर्मोपदेशेन केचियादाय संयमम् । गमिष्यन्ति जिनाषीश सर्वार्थसिद्धिमत्र हि ॥२३॥ स्वया निगदितं तीर्थं प्राप्य केचिद्विवलोक जम् । भुक्त्वा शर्म भविष्यन्ति मुक्तिनाथाः क्रमावधाः ।। केवलेन भवन्तं नाथासाद्य केचिदप्यहो । प्रज्ञानध्वान्तमाहत्य भविष्यन्ति भवत्समाः ।।२५१ भवत्सूर्योदयं प्राप्य मोहनिद्रा प्रहत्य वै । प्रभो चिच्चक्षुषा केचिल्लोकयिष्यन्ति सच्छिवम् ।। भवत्संबोधनाद्विश्वसुकल्याणपरम्पराम् । संलप्स्यन्ते बुधाः स्वामिन् दुःखं हत्वा जगत्त्रये ।। धन्या भयाशा दूलभतरास्तेऽत्र हे प्रभो। हत्वा बाल्येऽपि कामारीन ये गृह्णन्ति तपोऽना दुस्सहान् कोमलाङ्गेऽपि ये सहन्ते परोषहान् । धन्यास्त एव लोकेऽस्मिन्महान्तो धैर्यशालिनः।२६। नियोग के लिये है अावश्यकता की पूति के लिये नहीं ॥१८॥ अथवा हे नाथ ! हम लोगों के द्वारा बोधित हुए आप हम लोगों को समस्त हित का बोध करायेंगे जिस प्रकार हम लोगों के द्वारा जलाया हुआ दीएक हम लोगों के अन्धकार को नष्ट करता है और घटपटादि पदार्थों को दिखाता है ॥१६॥ हे जिनेन्द्र ! कितने चतुर लोग अपना हित करते हैं परन्तु पाप पुण्य का मार्ग दिखला कर निज और पर दोनों के हित कर्ता होंगे ॥२०॥ श्राप केवलज्ञानरूपो मेघ होकर दिध्यवचनरूपी जल के द्वारा सत्पुरुषों को मोक्षरूप फल की प्राप्ति के लिये धर्मरूप वृष्टि करेंगे ॥२१॥ हे देव ! आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्ग को प्राप्त कर कितने ही बुद्धिमान चारित्र से अपने कमरूपी शत्रुओं को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त होंगे ॥२२॥ हे जिनेन्द्र ! आपके उपदेश से संयम ग्रहण कर कितने हो लोग सर्वार्थ सिद्धि जाओंगे ॥२३।। आपके द्वारा कहे हुए तीर्थ को प्राप्त कर कितने ही विद्वज्जन दोनों लोकों का सुख भोग कर क्रम से मुक्ति के स्वामी होंगे ॥२४॥ अहो नाथ ! कितने ही लोग प्रापको प्राप्त कर केवलज्ञान के द्वारा प्रज्ञान तिमिर को नष्ट कर आपके समान होंगे ॥२५॥ हे प्रभो ! कितने ही लोग पाप जैसे सूर्य का उदय प्राप्तकर तथा निश्चय से मोहरूपी निद्रा को नष्ट कर ज्ञानरूपी चक्षु के द्वारा समीचीन मोक्ष को देखेंगे ॥२६॥ हे स्वामिन् ! अापके सम्बोधन से विद्वज्जन तीनों लोकों में दुःख को नष्ट कर समस्त कल्याणों की परम्परा को प्राप्त करेंगे ॥२७॥ हे प्रभो ! इस जगत् में प्राप जैसे धन्यभाग मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ हैं जो बाल्यावस्था में भी कामशत्रु को नष्ट कर निर्दोष तप ग्रहण करते हैं ॥२८॥ जो कोमल शरीर में भी कठिन परिषहों को सहते हैं वे ही इस लोक में धन्य हैं, महान हैं १ पुण्यदर्शनान् ।