________________
..-
-.
----.
.
.
--
.
.-
vv
v
.
.
.
..
..
...
...
.
.
....
..
..
...
---.-.-.
..
२०६
*श्री पार्श्वनाथ चरित है क्षीराणवाम्बुसंपूर्ण मुक्तादामादिभूषितः । हेमकुम्भमहाभूत्या ह्यारोप्य हरिविष्टरे ॥४६।। पुननिभूषयामासुनिसर्गसुन्दरं जिनम् । ते वा मुक्तेवर दिव्यपालाभूषाम्बरादिभिः ।५७।। ततः संबोध्य वैराग्यवयोभिः पितृबान्ध्यवान् । मातरं चातिकष्टेन विसृज्य जिनपुङ्गवः ।।५१।। शाकहस्तं समालम्ब्य' शिविका विमलाभिधाम् । देवोत्पन्नां प्रतिज्ञां वा दीक्षायामारोह सः ।।१२।। चन्दनालिप्तदीप्ताङ्गः स्रग्वी भूषाचलङ्क,तः । स रेजे शिविकारूढः मदरो वा तपःश्रियः ।। ५३।। पादौ सरावान्यूहमा तां शिधिका नृपा । तता मिन्युः स्वगाधीशा ब्योम्नि सप्तपदान्तरम् ५४ सत: सुरासुराः स्वस्पस्कन्धेष्वारोप्य भक्तितः । तामुत्पेतुर्न भो भूत्या सानन्दा ह्यविलम्बितम् ।५५। महो पर्याप्तमत्रास्य विभोर्माहात्म्यशंसनम् । कल्पनाथास्तदा यभूवुयुग्मकवाहिनः ।।१६।। पुष्पवर्षं तदा चकुः कुसुमैः कल्पशाखिजैः । देवा व बी मरुद्गङ्गा शीकराहारशीतलः ।। ५७।। प्रस्थानमङ्गलान्युच्चेदर्दीक्षोत्साहक रायपि । दिव्येन वचसा ग्रेऽस्य प्रपेडुः सुरवन्दिनः ।।५८। वान का महाभिषेक क्रिया ॥४८॥ इन्द्रों ने वह अभिषेक, भगवान् को बड़े वैभव से सिंहासन पर बैठा कर क्षीर सागर के जल से परिपूर्ण तथा मोतियों की माला प्रावि से सुशोभित सुवर्ण कलशों के द्वारा किया था ।।४६।। अभिषेक के पश्चात् इन्द्रों ने स्वभाव से सुन्दर जिनराज को दिव्य मालाएं प्राभूषण और वस्त्र प्रादि से मुक्ति के दुलह के समान विभूपित किया ।।१०।। तदनन्तर जिनेन्द्र पार्श्वनाथ ने पैराग्यपूर्ण वचनों के द्वारा पिता को, भाई-बान्धवों को और माता को बड़े कष्ट से समझा कर उन्हें विदा किया पश्चात् इन्द्र का हाथ पकड़ कर वे दीक्षा की प्रतिमा के समान देव निमित विमला नाम की पालकी पर प्रारूढ हुए ॥५१-५२।। जिनका देदीप्यमान शरीर चन्दन से लिप्त था, जो मालानों से सहित थे तथा आभूषण प्रादि से अलंकृत थे ऐसे पालकी पर बैठे हुए पार्श्वकुमार तपोलक्ष्मी के वर के समान सुशोभित हो रहे थे ॥५३।। सब से पहले मनुष्यों ने बड़े हर्ष से सात कदम तक उस पालिकी को धारण किया, फिर सात डग विद्याधर राजा उसे प्राकाश में ले गये और उसके बाद मानन्द से भरे हुए सुर प्रसुर उसे भक्ति से अपने अपने कन्धों पर रखकर शीघ्र ही वैभव के साथ आकाश में जा उड़े ॥५४-५५।। अहो ! इन विभु का माहात्म्य वर्णन इतना ही पर्याप्त है कि उस समय स्वर्ग के इन्द्र उनको पालकी के वाहक हुए थे ॥५६।। उस समय देव कल्पवृक्षों से उत्पन्न फूलों के द्वारा पुष्पवर्षा कर रहे थे और गङ्गा के छींटों को बाहरण करने से शीतल वायु बह रही थी ।।१७।। दीक्षा के उत्साह को करने वाले प्रस्थान-कालिक मङ्गलाचार भी अच्छी मात्रा में हो रहे थे और भगवान के प्रागे आगे देवों के चारण विव्य वचनों द्वारा विरुदावली का पाठ कर रहे थे ॥५॥
१. चतुरन्तयानम् ।