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* श्री पाश्र्धनाथ चरित . धमांन्नास्त्यपरः पितात्र हितद्धर्मस्य बी सुम्,
धर्मेऽहं विदधे मनः प्रतिदिनं हे धर्म मेऽघं हर ।।१३४।। इत्येता हृदि चिन्तयन्त्यनुदिनं मुक्त : सुसख्योप्यनु
प्रेक्षा येऽत्र पलायतेऽघसहितो रागश्च तेभ्यः खलः । तमाशाच्च विज्ञायतेऽति परमो निर्वद एवाधहन
निर्वदात्तप एवं दु:करमतस्तेषां शिवोऽघक्षयात् ॥१३५।।
मालिनी सकलगुणनिधानाः सर्वसिद्धान्तमूला जिनवरमुनिसेव्या रागपापारिहन्त्रीः । शिवगतिसुखखानी: सिद्धयेमुक्तिकामा अनवरतमनुप्रेक्षा भजध्वं प्रयत्नात् ॥१३॥
पार्दूलविक्रीरितम् यो रागादिरिपून विजित्य जिनपो निर्वेदतीक्ष्णासिना
वाल्येऽप्यत्र धकार संनिजवशे वैराग्य राज्यं महत् । हत्वा शर्म नदेव च विभवं त्रैलोक्य राज्याय तं
स्तोष्ये तद्गुणसिद्धये गुणगणविघ्नौघनाशंकरम् ।।१३।। इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रेऽनुप्रेशावरणनो नाम पञ्चदशः सर्गः ॥१५॥ धर्म में मम लगाता हूं, हे धर्म ! मेरा पाप नष्ट करो ॥१३४॥ मुक्ति की सखी स्वरूप इन अनुप्रेक्षात्रों का जो प्रतिदिन हृदय में चिन्तन करते हैं उनके समीप से पाप सहित रागरूपी दुर्जन भाग जाता है, राग के नष्ट हो जाने से पाप को नष्ट करने वाला अत्यन्त उत्कृष्ट वैराग्य ही उत्पन्न होता है, वैराग्य से कठिन तप प्राप्त होता है और तप से पापों का भय होकर मोक्ष प्राप्त होता है ॥१३५।। जो समस्त गुरणों को निधान है, समस्त सिद्धान्तों की मूल हैं, जिनेन्द्र देव तथा छड़े बड़े मुनियों के द्वारा सेवनीय हैं, राग और पापरूपो शत्रु को नष्ट करने वाली हैं, और मोक्षगति के सुखों को खान हैं, ऐसो अनुप्रेक्षानों का हे मोक्षाभिलाषी जीवो ! मोक्ष के लिये निरन्तर प्रयत्नपूर्वक चिन्तन करो ॥१३६॥
जिन्होंने वैराग्यरूपी तीक्ष्ण तलवार के द्वारा रागादि शत्रुनों को जीतकर बाल्य अवस्था में भी बहुत बड़े वैराग्यरूपी राज्य को अपने वश कर लिया था तथा मनुष्य और देव पर्याय में होने वाले सुख और वैभव को छोड़कर जो तीन लोक का राज्य प्राप्त करने के लिये समर्थ हुए थे, गुरणसमूह के द्वारा विघ्नसमूह को नष्ट करने वाले उन पार्श्व जिनेन्द्र की, उनके गुणों की प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूँ।।१३७।।
इस प्रकार श्रीभट्टारक सकलकोति के द्वारा विरचिन श्री पार्श्वनाथ चरित में मनुप्रेक्षामों का वर्णन करने वाला पन्द्रहवां सर्ग समाप्त हवा ।।१५।।